रविवार, 2 सितंबर 2012

‘पाबू, हडबू, रामदे, माँगलिया, मेहा। पाँचू पीर पधारज्यों, गोगाजी महाराज '

नाथ परम्परा के महान योगी

राजस्थान भाषा  में एक चर्चित दोहा है : ‘‘पाबू, हडबू, रामदे, माँगलिया, मेहा।
पाँचू पीर पधारज्यों, गोगाजी महाराज '
 वीर गोगादेव के जन्मस्थान, जो राजस्थान के चुरू जिले के दाद्रगढ़  (ददरेवा) में स्थित है। जहाँ पर सभी धर्म और सम्प्रदाय के लोग मत्था टेकने के लिए दूर-दूर से आते हैं।  जैसा की आप तो जानते ही हो की -
नाथ परम्परा के साधुओं के ‍लिए यह स्थान बहुत महत्व रखता है। दूसरी ओर कायम खानी मुस्लिम समाज उनको जाहर पीर के नाम से पुकारते हैं तथा उक्त स्थान पर मत्‍था टेकने और मन्नत माँगने आते हैं। इस तरह यह स्थान हिंदू और मुस्लिम एकता का प्रतीक है।

मध्यकालीन महापुरुष गोगाजी हिंदू, मुस्लिम, सिख संप्रदायों की श्रद्घा अर्जित कर एक धर्मनिरपेक्ष लोकदेवता के नाम से भगवान के रूप में प्रसिद्ध हुए। गोगाजी का जन्म राजस्थान के ददरेवा (चुरू) चौहान वंश के राजपूत शासक जैबर (जेवरसिंह) की पत्नी बाछल के गर्भ से गुरु गोरखनाथ के वरदान से भादो सुदी नवमी को हुआ था। चौहान वंश में राजा पृथ्वीराज चौहान के बाद गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा थे। गोगाजी का राज्य सतलुज सें हांसी (हरियाणा) तक था।

लोकमान्यता व लोककथाओं के अनुसार गोगाजी को साँपों के देवता के रूप में भी पूजा जाता है। लोग उन्हें गोगाजी चौहान, गुग्गा, जाहिर वीर गातोड जी  व जाहर पीर के नामों से पुकारते हैं। यह गुरु गोरक्षनाथ के प्रमुख शिष्यों में से एक थे। राजस्थान के छह सिद्धों में गोगाजी को समय की दृष्टि से प्रथम माना गया है।


जयपुर से लगभग 250 किमी दूर स्थित सादलपुर के पास  (ददरेवा) में गोगादेवजी का जन्म स्थान है। ददरेवा  चुरू के अंतर्गत आता है। गोगादेव की जन्मभूमि पर आज भी उनके घोड़े का अस्तबल है और सैकड़ों वर्ष बीत गए, लेकिन उनके घोड़े की रकाब अभी भी वहीं पर विद्यमान है। उक्त जन्म स्थान पर गुरु गोरक्षनाथ का आश्रम भी है और वहीं है गोगादेव की घोड़े पर सवार मूर्ति। भक्तजन इस स्थान पर कीर्तन करते हुए आते हैं और जन्म स्थान पर बने मंदिर पर मत्‍था टेककर मन्नत माँगते हैं।

हनुमानगढ़ जिले के नोहर उपखंड में स्थित गोगाजी के पावन धाम गोगामेड़ी स्थित गोगाजी का समाधि स्थल जन्म स्थान से लगभग 80 किमी की दूरी पर स्थित है, जो साम्प्रदायिक सद्भाव का अनूठा प्रतीक है, जहाँ एक हिन्दू व एक मुस्लिम पुजारी खड़े रहते हैं। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा से लेकर भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा तक ददरेवा व  गोगा मेड़ी के मेले में वीर गोगाजी की समाधि तथा गोरखटीला स्थित गुरु गोरक्षनाथ के धूने पर शीश नवाकर भक्तजन मनौतियाँ माँगते हैं।

''गोगा पीर'' व '' जाहर वीर'' के जयकारों के साथ गोगाजी तथा गुरु गोरक्षनाथ के प्रति भक्ति की अविरल धारा बहती है। भक्तजन गुरु गोरक्षनाथ के टीले पर जाकर शीश नवाते हैं, फिर गोगाजी की समाधि पर आकर ढोक देते हैं। प्रतिवर्ष लाखों लोग गोगा जी के मंदिर में मत्था टेक तथा छड़ियों की विशेष पूजा करते हैं।

प्रदेश की लोक संस्कृति में गोगाजी के प्रति अपार आदर भाव देखते हुए कहा गया है कि ''गाँव-गाँव में खेजड़ी, गाँव-गाँव में गोगा'' वीर गोगाजी का आदर्श व्यक्तित्व भक्तजनों के लिए सदैव आकर्षण का केन्द्र रहा है।
विद्वानों व इतिहासकारों ने उनके जीवन को शौर्य, धर्म, पराक्रम व उच्च जीवन आदर्शों का प्रतीक माना है। इतिहासकारों के अनुसार गोगादेव अपने बेटों सहित मेहमूद गजनबी के आक्रमण के समय सतलुज के मार्ग की रक्षा करते हुए शहीद हो गए!

       by - विनोद कुमार  जाखड़ 

                                                 जय गुरू गीता गोपाल से  साभार !

कोई टिप्पणी नहीं: