बुधवार, 19 सितंबर 2012
गोगाजी चौहान
गोगाजी चौहान
गोगाजी महाराज -
राजस्थान रै पांच पीरां में सूं
अेक गोगा पीर। गोगा पीर राजस्थान रा अेकला अैड़ा लोक देवता जिणां री मानता
आखै राजस्थान रै अलावा गुजरात, हरियाणा, पंजाब, हिमाचलप्रदेस, मध्यप्रदेस,
उत्तरप्रदेस इत्याद दूजै राज्यां में ई करीजै। गोगा पीर रौ अेक नाम 'जाहर
पीर' ई है अर उत्तरप्रदेस में इणी नाम सूं पुजीजै।हिन्दुवां में तौ अै
पूज्या जावै ई, मुसलमान ई इणां री पूजा करै।
गोगा रौ इतियासिक वृत्त कांई रैयौ?- इण बाबत लोक-मानस कैई परवा नीं करी, वै
तौ उणां नै सांपां रा देवता मान'र पूजता रैया। गोगा रौ सांपां रै साथै
कांई रिस्तौ हौ अर वौ रिस्तौ कीकर हुयौ?- इण बाबत कोई प्रमाण उपलब्ध नीं
है। पण गोगा रै संबंध में जित्तौ ई साहित्य मिलै, उणमें उणां रौ रिस्तौ
किणी-न-किणी रूप में सांपां सूं बतायौ गयौ है अर लोक में औ विसवास घणौ
प्रबल है के गोगाजी रै हुकम बिना सांप किणी नै ई नीं काट सकै। आ ई वजै के
आपणै अठै 'गाम-गाम गोगौ नै गाम-गाम खेजड़ी', मतलब 'गाम-गाम खेजड़ी रै रूंख
हेठै गोगाजी रौ थान हुवै'।
गोगा रै सांपां सूं संबंध बाबत 'अेनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका' सूं
फ्लूटार्क रौ औ हवालौ देवणौ ई अठै काफी हुवैला के- " पुराणै जमानै रा लोग
वीरां रौ संबंध सांपां सूं ई खास तौर सूं दिखाया करता हा, किणी दूजै सूं
इत्तौ नींं।"
गोगा अेक इतियासिक पुरुष हा। आपरै देस अर धरम री रक्षा करता थका वीरता रै
साथै आपरा प्राण निछावर करण वाला गोगा 11 वीं सदी में हुया हा अर वै महमूद
गजवनी रें समसामयिक हा।
'क्यामखां रासौ' रै मुजब गोगा घांघू बसावण वालै घंघराणा री 5 वीं पीढ़ी में
हुया हा। माघ सुदी 14 वि.सं. 1273 रौ अेक अभिलेख राणा जैतसी रै जमानै रौ
ददरेवा में मिल्यौ। राणा जैतसीरी 7वीं पीढ़ी में करमचंद हुयौ हौ जिणनै बादसा
फिरोजशाह तुगलक (वि.सं. 1408-45) मुसलमान बणायौ हौ। आं करमचंद अर जैतसी रै
तै बगत सूं गणना करियां गोगा रौ बगत 11 वीं सदी ई आवै। इण बात री पुष्टि
ददरेवा रै बराबर चालण बाली छापर द्रोणपुर री मोहिल शाखा रै वंशक्रम, जिकौ
के नैणसी दियौ है, अर उणरै राणावां रै मिल्यै अभिलेखां सूं ई हुवै। अठै याद
राखणजोग बात आ है के आ शखा घांघू बसावण वालै घंघराणा रै बेटै इंद सूं ई
अलग हुई।
सन् 1409 रै लगै-टगै रच्योडै 'श्रावकव्रतादि-अतिचार' नाम ुजराती ग्रंथ रै
अलावा 'मंत्री यशोवीर प्रबंध' सूं साफ ठा पडै़ के वां जमानां में गोगा री
मानता चौफेर फैल चूकी ही अर पूजा ठोस रूप धारण कर चूकी ही।
गोगा रै चरित में अरजन-सरजन री भूमिका अेक खास मैतव
राखै। अरजन-सरजन सूं गोगाजी रै घरा अर घन रै कारण कलै रैवती ही। इण मुजब
अरजन-सरजन इणां रै खिलाफ मुसलमांनां री फौज लाय'र गोगाजी री गायां घेर लीी.
तद उणां रौ गोगाजी सूं जु्दध हुयौ। इणमें अरजन-सरजन रै साथै ई कैयौ जावै
गोगाजी ई वीरगति पायी अर इणां री जोड़ायत मेनल सती हुयी। लोक साहित्य अर
किंवदंतियां मुजब जोड़ भाई अरजन अर सरजन गोगा रा मासियात भाई हा। वै खुद नै
पद में बड़ा मानता थका गोका रै पाट बैठण रौ विरोध करियो हौ अर जुद्ध में
गोगा रै हाथां मारया गया हा। कथानक इण भांत है-
ददरेवा रै राणा उमर (अमरा) रै बेटै जेवर रौ ब्याव बाझल रै साथै हुयौ हौ, अर
बाछल री अेक बैन आछल ई इणी परिवार मांय परणाईजी ही। पण लंबै बगत तांई जेवर
रै कोई औलाद नीं हुया वौ घणौ दुखी रैवतौ हौ। किणी महातमा रै कैयां सूं
जेवर ददरेवा मांय नौलखौ बाग लगवायौ अक अेक कूवौ खुदवायौ। पण जेवर रै बाग
मांय बड़तां ई बाग सूखग्यौ अर कूवै रौ पाणी खारौ हुयग्यौ। किणी जोतसी रै
कैयां राणी बाछ गुरु गोरखनाथ री आराधना मन लगाय'र करण लागी। गोरखनाथ नै जद
योग-बल सूं बाछल री सेवा री जाणकारी हुई तौ वै आपरै चवदै सौ चेलां रै साथै
दरदेवा आया। उणां रै आवतां ई नोलखौ बाग हरियौ हुयग्यौ अर कूवै रौ पाणी
मीठौ। बाछल गुरु गोरखनाथ री घणी सेवा करी। पण जद वरदान देवण रौ समौ आयौ, तौ
आछल आपरी बैन बाछ रा कपड़ा पैर'र गोरखनाथ री सेवा मांय हाजर हुयगी। गोरखनाथ
उणनै इज दो पुत्र हुवण स्वरूप दो जउ प्रसाद-स्वरूप देय'र आसीरवाद देय दियौ
अर पछै आपरौ धूणौ कलेस हुयौ अर वा गोरखनाथ रै लारै-लारै सिद्धमुख गई। उठै
वा पाछी उणां री आराधना करी तौ वै उणनै गूगल रूपी हव्य प्रसाद-स्वरूप दियौ
अर कैयौ के इमसूं थारै जिकौ बेटौ हुवैला, वौ उण दोनां सूं बलशाली हुवैला।
राणी घरै आय'र गूगल रौ कीं हिस्सौ आपरी बांझ पुरोहिताणी नै यिौ, जिणसूं
महावीर 'नरसिंघ पांडे' रौ जनम हुयौ। कीं हिस्सौ दासी नै दियौ, जिणसूं भज्जु
कोतवाल रौ जनम हुयौ। कीं हिस्सौ घोड़ी नै दियौ, जिणसूं 'लीलौ बछेरौ' जनमियौ
अर बाकी खुद बाछल लेय लियौ, जिण सूं गोगा रौ जनम हुयौ। मोट्यार हुयां गोगै
रौ ब्याव राजा सिंझा री पुत्री सिरियलदे रै साथै हुयौ। पण गोगौ जद ददरेवा
री राजगादी माथै बैठियौ तौ आछल रा दोनूं पुत्र अरजन-सरजन गोगाजी सूं झगडौ
करियौ, पण जुद्ध मांय मार्या गया। चूरू जिलै रौ गाम जोड़ी जोड़ भाइयां रौ
ठिकाणौ।
गोगाजी संबंधी लोक-प्रचलित, कथानक मुजब गोगा रौ जनम
गुरु गोरखनाथ रै प्रसाद अर आसीरवाद रै फलस्वरूप हुयौ हौ अर लोक साहित्य
मांय तौ गोगा अर गोरखनाथ रै मिलण री बात घणी चावी है ई, इतियासिक दीठ सूं ई
गोगा अर गोरखनाथ समसामयिक लागै। गोरखनाथ रौ बगत विक्रम रौ 11 वौं सईकौ है
अर औ ई बगत चौहाण राणा गोगा रौ ई। सो दोनां रै मिलण री संभावना तौ अणूंती ई
है। नोहर रै कनै ई गाम गोगामैड़ी मांय गोगाजी री समाधि है। समाधि सूं थोड़ी ई
दूरी माथै गोगाणौ तलाव अर गोरखाणौ टीलौ है जिकौ गोरखनाथ रै घूणै रै रूप
में पुजीजै। अैड़ी बात चावीहै के गोरखनाथ अठै तपस्या करी ही।
महमूद गजनवी भारत माथै केई बार हमला कर्या हा। उणरै बार-बार रै हमलां सूं
भारत नै अणमाप नुकसाण उठावणौ पड्यौ हौ। गोगा जद देख्यौ के अठै रै लोगां रै
धरम अर सम्मान माथै आंच आय रैयी है तौ वै मर-मिटण री तेवड़'र उण खूंखार
हमलावर रै खिलाफ आतम-अभियान रै साथै जुद्ध रै मैदान मांय उतर पड्या अर
पराक्रम सूं जूझता थकां आपरै पेटां, सगा-संबंधियां अर सैनिकां समेत वीरगति
नै प्राप्त हुया।
आखै राजस्थान मांय तौ गोगाजी री पूजा हुवै ई है, इणरै अलावा हरियाणा,
पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश अर गुजरात इत्याद प्रांतां ई
गोगाजी री मान्यता है। मुसलमानां तकात में गोगाजी री मान्यता रैयी है।
राजस्थान रै गाम-गाम मांय गोगाजी रा थान खेजड़ी रै रूंख हेठै मिलै। गोगाजी
री मैड़ियां ई केई मिलै, पण उणां में दो खास मानीजै- अेक तौ चूरु जिलै री
राजगढ तैसील रै गाम ददरेवा मांय जठै गोगा राणा री राजधानी ही। इण मैड़ी नै
'शीश मैड़ी' कैयौ जावै। दूजी मैड़ी 'गोगामैड़ी' नाम रै गाम मांय है, जिणनै
'धुर मैड़ी' कैवै। औ गाम हनुमानगढ़ जिलै री नोहर तैसील मांय आयौ थकौ है।
मैड़ी रै मांय गोगाजी री समाधि है। ददरेवा अर गोगामैड़ी रै अलावा ई अनेक
स्थानां माथे मेला लागै। कठैई भादवै वदी 9 नेै, तौ कठैई भादवै सुदी 9 नेै।
गोगा नाम रे दिन धरां मांय खीर, चूरमौ अर धूधरैदार पूवा बणाया जावै। इण दिन
बिलवणौ नीं करीजै। भगत लोक पूरै भादवै रै महीनै मांय व्रत-उपवास करै।
गोगाजी रेै नाम सूं मनौतियां मनाईजै अर गोगाजी रा रातीजोगा दिरीजै। गोगाजी
नै नालेर घणा चढाईजै। भगत लोग गलै मांय नाल पैरै। कीं जातियां में गोगा नम
नै
बिना बूझिया सावा हुवै। कठैई-कठैई कुम्हार लोग घुड़सावर गोगाजी री मूरती
बणाय'र घरां मांय लावै अर घर वाला उणरी पूजा करै। www.dadrewagogaji.blogspot.in
आपणों राजस्थान से संभार !
|
नाग देवता गोगाजी महाराज -
भारत देश कृषिप्रधान देश था और है। सांप खेतों का रक्षण करता है, इसलिए
उसे क्षेत्रपाल कहते हैं। जीव-जंतु, चूहे आदि जो फसल को नुकसान करने वाले
तत्व हैं, उनका नाश करके सांप हमारे खेतों को हराभरा रखता है।
साँप हमें कई मूक संदेश भी देता है। सांप को गोगाजी का रूप माना जाता है , साँप के गुण देखने की हमारे पास
गुणग्राही और शुभग्राही दृष्टि होनी चाहिए। भगवान दत्तात्रय की ऐसी शुभ
दृष्टि थी, इसलिए ही उन्हें प्रत्येक वस्तु से कुछ न कुछ सीख मिली।
साँप जैन व बोद्ध धर्म मे पवित्र दिव्य गुणों के होने के रूप मे माना जाता है .
साँप सामान्यतया किसी को अकारण नहीं काटता। उसे परेशान करने वाले को या
छेड़ने वालों को ही वह डंसता है। सांप के काटने को राजस्थानी भाषा मे पान लगना बोलते है .साँप प्रभु का भी सर्जन है, वह यदि नुकसान
किए बिना सरलता से जाता हो, या निरुपद्रवी बनकर जीता हो तो उसे मारने का
हमें कोई अधिकार नहीं है। राजस्थान के ददरेवा धाम मे भादों मास मे कोई सांप को नहीं मारता है . मानता है की यहाँ सांप के दिखने पर उसे गोगा मंदिर मे जाने के लिए बोल देने पर सांप चला जाता है .
साँप को सुगंध बहुत ही भाती है। चंपा के पौधे को लिपटकर वह रहता है या
तो चंदन के वृक्ष पर वह निवास करता है। केवड़े के वन में भी वह फिरता रहता
है। उसे सुगंध प्रिय लगती है, इसलिए भारतीय संस्कृति को वह प्रिय है।
प्रत्येक मानव को जीवन में सद्गुणों की सुगंध आती है, सुविचारों की सुवास
आती है, वह सुवास हमें प्रिय होनी चाहिए।
हम जानते हैं कि साँप बिना कारण किसी को नहीं काटता। वर्षों परिश्रम
संचित शक्ति यानी जहर वह किसी को यों ही काटकर व्यर्थ खो देना नहीं चाहता।
हम भी जीवन में कुछ तप करेंगे तो उससे हमें भी शक्ति पैदा होगी। यह शक्ति
किसी पर गुस्सा करने में, निर्बलों को हैरान करने में या अशक्तों को दुःख
देने में व्यर्थ न कर उस शक्ति को हमारा विकास करने में, दूसरे असमर्थों को
समर्थ बनाने में, निर्बलों को सबल बनाने में खर्च करें, यही अपेक्षित है ! (जय ददरेवा -जय गोगाजी)
सोमवार, 17 सितंबर 2012
गोगाजी मंदिर मे तुगलक का सहयोग !
गोरख गँगा ददरेवा धाम (चुरू )
चौहान वंश में राजा पृथ्वीराज चौहान के बाद गोगाजी वीर
और ख्याति प्राप्त राजा थे। ददरेवा मे गोगाजी मंदिर विशाल भवन के रूप में नगर के बीच व गोगामेडी में गोगाजी का मंदिर एक ऊंचे टीले
पर मस्जिदनुमा बना हुआ है, इसकी मीनारें मुस्लिम स्थापत्य कला
का बोध कराती हैं। मुख्य द्वार पर बिस्मिला अंकित है। मंदिर
के मध्य में गोगाजी का मजार है (कब्र) है। साम्प्रदायिक
सद़भावना के प्रतीक गोगाजी के मंदिर का निर्माण गोगामेडी में बादशाह
फिरोजशाह तुगलक ने कराया था। संवत 362 में फिरोजशाह तुगलक
हिसार होते हुए सिंध प्रदेश को विजयी करने जाते समय गोगामेडी
में ठहरे थे। रात के समय बादशाह तुगलक व उसकी सेना ने एक
चमत्कारी दृश्य देखा कि मशालें लिए घोड़ों पर सेना आ रही है।
तुगलक की सेना में हा-हाकार मच गया। तुगलक कि सेना के साथ आए
धार्मिक विद्वानों ने बताया कि यहां कोई महान हस्ती आई हुई है।
वो प्रकट होना चाहती है। फिरोज तुगलक ने लड़ाई के बाद आते समय
गोगामेडी में मस्जिदनुमा मंदिर का निर्माण करवाया और पक्की
मजार बन गई। तत्पश्चात मंदिर का जीर्णोद्वार बीकानेर के महाराज
काल में 1887 व 1943 में करवाया गया।
गोगाजी का यह मंदिर आज हिंदू, मुस्लिम, सिख व ईसाईयों
में समान रूप से श्रद्वा का केंद्र है। सभी धर्मो के भक्तगण
यहां गोगा मजार के दर्शनों हेतु भादव मास में उमड़ पडते हैं।
राजस्थान का यह गोगामेडी नाम का छोटा सा गांव भादव मास में एक
नगर का रूप ले लेता है और लोगों का अथाह समुद्र बन जाता है।
गोगा भक्त पीले वस्त्र धारण करके अनेक प्रदेशों से यहां आते
हैं। सर्वाधिक संख्या उत्तर प्रदेश हरियाणा देहली व बिहार के भक्तों की होती
है। नर-नारियां व बच्चे पीले वस्त्र धारण करके विभिन्न साधनों
से ददरेवा व गोगामेडी पहुंचते हैं। स्थानीय भाषा में इन्हें पूरबिये
कहते हैं। भक्तजन अपने-अपने निशान जिन्हे गोगाछड़ी भी कहते हैं
लेकर मनौति मांगने नाचते-गाते ढप,ढोल व डमरू बजाते व कुछ सांप
लिए भी नाचते गाते आते हैं। गोगा को सापों के देवता के रूप में भी माना
जाता है। हर धर्म व वर्ग के लोग गोगाजी की छाया चढ़ाकर नृत्य
की मुद्रा में सांकल,तलवार व छड़ी खाते व पदयात्रा करते तथा गोरखनाथ टीले से
लेटते हुए गोगाजी के समाधि स्थल तक पहुंचते हैं। नारियल, बताशे
का प्रसाद चढ़ाकर मनौति मांगते र्हैं।
गोगाजी को राजस्थान के मेवाड़ इलाके मे गातोड जी के नाम से जानते है!.
श्रीगोगा नवमी :
भाद्रपद श्रीकृष्णाष्टमी के दूसरे दिन की पुण्य तिथि नवमी ही "" गोगा नवमी "" नाम से प्रसिद्ध है। इस दिन वीर गोगाजी का जन्मोत्सव बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। इनकी जन्मस्थली "" ददरेवा "" नामक स्थान है जो राजस्थान के चूरू जिले की राजगढ़ तहसील में स्थित है। इस दिन गोगाजी के भक्तगण अपने घरों में अखण्डजोत जलाकर जागरण करते हैं और अपने परम्परागत वाद्य यंत्रों की धवनि के साथ गोगाजी की शौर्यगाथा और जन्मकथा का श्रवण करते हैं। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार श्रीगोगाजी महाराज को जाहरवीर, गोगावीर, गुगालवीर, गोगागर्भी ओर जाहरजहरी नाम से भी जाना जाता है। बाबा की पूजा सामग्री में लौंग, जायफल, कर्पूर, गुग्गुल और गाय का घी प्रयोग में लिया जाता है। प्रसाद के रूप में हरी दूब और चने की दाल समर्पित की जाती है और उनकी समाघि पर चंदन चूरा मला जाता है।आजकल भक्तजन प्रसाद के रूप में खील,
मखाना,नारियल और खीर हलवा का भोग लगाते हैं ! भक्तों की मान्यता है कि वे आज भी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से उनका मार्गदर्शन करते हैं। इसी कारण उन्हें प्रकटवीर भी कहा जाता है।
गोगाजी मंदिर ददरेवा के पुजारी श्री बच्चन सिंह चोहान है ,गोगा भगतो की मान्यता है की पीले वस्त्र पहन कर ददरेवा आने से उनके कष्ट दूर हो जाते है,इसलिए पुरे भादो महीने मे भगत पीले पीले कपड़ों मे नजर आते है, यह नजारा देखते ही बनता है। यहा से पूजा करने के बाद वो लोग गोगामेड़ी जाते है जो ददरेवा से 65किलोमीटर है, जहाँ भगवान गोगाजी की प्राचीन समाधी है गोगामेड़ी धाम राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले के नोहर तहसील में है !
श्री जाहरवीर गोगाजी की आरती
श्री जाहरवीर गोगाजी की आरती
जय -जय जाहरवीर हरे,जय -जय गोगावीर हरे ,
धरती पर आकर के भक्तों के कष्ट हरे जय जय ----
जो कोई भक्ति करे प्रेम से , निसादिन करे प्रेम से ,भागे दुःख परे ,
विघ्न हरन मंगल के दाता,जन -जन का कष्ट हरे ,
जेवर राव के पुत्र कहाए,रानी बाछल माता ,
बागड़ में जन्म लिया गुगा ने ,सब जय -जयकार करे ,जय जय ......
धर्म कि बेल बढाई निशदिन ,तपस्या रोज करे
दुष्ट जनों को दण्ड दिया ,जग में रहे आप खरे ,जय -जय ......
सत्य अहिंसा का व्रत धारा ,झुठ से सदा डरे
वचन भंग को बुरा समझ कर , घर से आप निकरे , जय-जय ...
माडी में करी तपस्या अचरज सभी करे
चारों दिशाओं से भगत आ रहे ,जोड़े हाथ खड़े ,जय-जय .......
अजर अमर है नाम तुम्हारा ,हे प्रसिद्ध जगत उजियारा
भुत पिशाच निकट नहीं आवे , जो कोई जाहर नाम गावे , जय जय ....
सच्चे मन से जो ध्यान लगावे ,सुख सम्पति घर आवे ,
नाम तुम्हारा जो कोई गावे ,जन्म जन्म के दुःख बिसरावे ,जय-जय ...
भादो कृषण नोमी के दिन जो पुजे ,वह विघ्नों से नहीं डरे ,
जय-जय जाहर वीर हरे , जय श्री गोगा वीर हरे .....!
संकलित -- विनोद जाखड़ , ददरेवा
जय -जय जाहरवीर हरे,जय -जय गोगावीर हरे ,
धरती पर आकर के भक्तों के कष्ट हरे जय जय ----
जो कोई भक्ति करे प्रेम से , निसादिन करे प्रेम से ,भागे दुःख परे ,
विघ्न हरन मंगल के दाता,जन -जन का कष्ट हरे ,
जेवर राव के पुत्र कहाए,रानी बाछल माता ,
बागड़ में जन्म लिया गुगा ने ,सब जय -जयकार करे ,जय जय ......
धर्म कि बेल बढाई निशदिन ,तपस्या रोज करे
दुष्ट जनों को दण्ड दिया ,जग में रहे आप खरे ,जय -जय ......
सत्य अहिंसा का व्रत धारा ,झुठ से सदा डरे
वचन भंग को बुरा समझ कर , घर से आप निकरे , जय-जय ...
माडी में करी तपस्या अचरज सभी करे
चारों दिशाओं से भगत आ रहे ,जोड़े हाथ खड़े ,जय-जय .......
अजर अमर है नाम तुम्हारा ,हे प्रसिद्ध जगत उजियारा
भुत पिशाच निकट नहीं आवे , जो कोई जाहर नाम गावे , जय जय ....
सच्चे मन से जो ध्यान लगावे ,सुख सम्पति घर आवे ,
नाम तुम्हारा जो कोई गावे ,जन्म जन्म के दुःख बिसरावे ,जय-जय ...
भादो कृषण नोमी के दिन जो पुजे ,वह विघ्नों से नहीं डरे ,
जय-जय जाहर वीर हरे , जय श्री गोगा वीर हरे .....!
संकलित -- विनोद जाखड़ , ददरेवा
गोरख शाबर गायत्री मन्त्र
गोरख शाबर गायत्री मन्त्र
“ॐ गुरुजी, सत नमः आदेश। गुरुजी को आदेश। ॐकारे शिव-रुपी, मध्याह्ने हंस-रुपी, सन्ध्यायां साधु-रुपी। हंस, परमहंस दो अक्षर। गुरु तो गोरक्ष, काया तो गायत्री। ॐ ब्रह्म, सोऽहं शक्ति, शून्य माता, अवगत पिता, विहंगम जात, अभय पन्थ, सूक्ष्म-वेद, असंख्य शाखा, अनन्त प्रवर, निरञ्जन गोत्र, त्रिकुटी क्षेत्र, जुगति जोग, जल-स्वरुप रुद्र-वर्ण। सर्व-देव ध्यायते। आए श्री शम्भु-जति गुरु गोरखनाथ। ॐ सोऽहं तत्पुरुषाय विद्महे शिव गोरक्षाय धीमहि तन्नो गोरक्षः प्रचोदयात्। ॐ इतना गोरख-गायत्री-जाप सम्पूर्ण भया। गंगा गोदावरी त्र्यम्बक-क्षेत्र कोलाञ्चल अनुपान शिला पर सिद्धासन बैठ। नव-नाथ, चौरासी सिद्ध, अनन्त-कोटि-सिद्ध-मध्ये श्री शम्भु-जति गुरु गोरखनाथजी कथ पढ़, जप के सुनाया। सिद्धो गुरुवरो, आदेश-आदेश।।”
साधन-विधि एवं प्रयोगः-
प्रतिदिन गोरखनाथ जी की प्रतिमा का पंचोपचार से पूजनकर २१, २७, ५१ या १०८ जप करें। नित्य जप से भगवान् गोरखनाथ की कृपा मिलती है, जिससे साधक और उसका परिवार सदा सुखी रहता है। बाधाएँ स्वतः दूर हो जाती है। सुख-सम्पत्ति में वृद्धि होती है और अन्त में परम पद प्राप्त होता है।
बाबा गोरखनाथ महायोगी !
गोगाजी धाम ददरेवा में गुरु गोरख नाथ का विशाल मंदिर है जिसे स्थानीय लोग गोरख टिल्ला कहते है -
मंदिर का वर्तमान मै बाल योगी किरषण नाथ जी पुजारी है ,मानता है की गोरख नाथ जी ने ददरेवा मै घोर तपस्या की थी !आज भी यहाँ विशाल धुंना है , गोगाजी मैले में आने वाले भगत गोरख टीला के दरसन किये बिना अपनी यात्रा असफल मानते है , मै विनोद जाखड़ भगवान गोरख नाथ जी को नमन करके आपके सामने कुछ शब्द परस्तुत कर रहा हु ! जय गुरु गोरख नाथ जी ----
ना कोई बारू , ना कोई बँदर, चेत मछँदर,
आप तरावो आप समँदर, चेत मछँदर
निरखे तु वो तो है निँदर, चेत मछँदर चेत !
धूनी धाखे है अँदर, चेत मछँदर
कामरूपिणी देखे दुनिया देखे रूप अपार
सुपना जग लागे अति प्यारा चेत मछँदर !
सूने शिखर के आगे आगे शिखर आपनो,
छोड छटकते काल कँदर , चेत मछँदर !
साँस अरु उसाँस चला कर देखो आगे,
अहालक आया जगँदर, चेत मछँदर !
देख दीखावा, सब है, धूर की ढेरी,
ढलता सूरज, ढलता चँदा, चेत मछँदर !
चढो चाखडी, पवन पाँवडी,जय गिरनारी,
क्या है मेरु, क्या है मँदर, चेत मछँदर !
गोरख आया ! आँगन आँगन अलख जगाया, गोरख आया!
जागो हे जननी के जाये, गोरख आया !
भीतर आके धूम मचाया, गोरख आया !
आदशबाद मृदँग बजाया, गोरख आया !
जटाजूट जागी झटकाया, गोरख आया !
नजर सधी अरु, बिखरी माया, गोरख आया !
नाभि कँवरकी खुली पाँखुरी, धीरे, धीरे,
भोर भई, भैरव सूर गाया, गोरख आया !
एक घरी मेँ रुकी साँस ते अटक्य चरखो,
करम धरमकी सिमटी काया, गोरख आया !
गगन घटामेँ एक कडाको, बिजुरी हुलसी,
घिर आयी गिरनारी छाया, गोरख आया !
लगी लै, लैलीन हुए, सब खो गई खलकत,
बिन माँगे मुक्ताफल पाया, गोरख आया !
"बिनु गुरु पन्थ न पाईए भूलै से जो भेँट,
जोगी सिध्ध होइ तब, जब गोरख से हौँ भेँट!"
बाबा गोरखनाथ महायोगी हैँ- !
८४ सिध्धोँ मेँ जिनकी गणना है, उनका जन्म सँभवत, विक्रमकी पहली शती मेँ या कि, ११ वीँ शताब्दि मेँ माना जाता है। दर्शन के क्षेत्र मेँ वेद व्यास, वेदान्त रहस्य के उद्घाटन मेँ, आचार्य शँकर, योग के क्षेत्र मेँ पतँजलि तो गोरखनाथ ने हठयोग व सत्यमय शिव स्वरूप का बोध सिध्ध किया ।
कहा जाता है कि, मत्स्येन्द्रनाथ ने एक बार अवध देश मेँ एक गरीब ब्राह्मणी को पुत्र - प्राप्ति का आशिष दिया और भभूति दी !
जिसे उस स्त्री ने, गोबर के ढेरे मेँ छिपा दीया !--
१२ वर्ष बाद उसे आमँत्रित करके, एक तेज -पूर्ण बालक को गुरु मत्स्येन्द्रनाथ ने जीवन दान दीया और बालक का " गोरख नाथ " नाम रखा और उसे अपना शिष्य बानाया !
- आगे चलकर कुण्डलिनी शक्ति को शिव मेँ स्थापित करके, मन, वायु या बिन्दु मेँ से किसी एक को भी वश करने पर सिध्धियाँ मिलने लगतीँ हैँ यह गोरखनाथ ने साबित किया।
उन्होंने हठयोग से, ज्ञान, कर्म व भक्ति, यज्ञ, जप व तप के समन्वय से भारतीय अध्यात्मजीवनको समृध्ध किया।--
गोरखनाथ से ही राँझा ने, झेलम नदी के किनारे , योग की दीक्षा ली थी ।
झेलम नदी की मँझधार मेँ हीर व राँझा डूब कर अद्रश्य हो गये थे !
मेवाड के बापा रावल को गोरखनाथ ने एक तलवार भेँट की थी जिसके बल से ही जीत कर, चितौड राज्य की स्थापना हुई थी !
गोरखनाथ जी की लिखी हुइ पुस्तकेँ हैँ , गोरक्ष गीता, गोरक्ष सहस्त्र नाम, गोरक्ष कल्प, गोरक्ष~ सँहिता, ज्ञानामृतयोग, नाडीशास्त्र, प्रदीपिका, श्रीनाथसूस्त्र,हठयोग, योगमार्तण्ड, प्राणसाँकली, १५ तिथि, दयाबोध इत्यादी --- गोरख नाथ के वरदान से ददरेवा के गोगाजी का जन्म हुआ था !
गोरख वाणी :
" पवन ही जोग, पवन ही भोग,पवन इ हरै, छतीसौ रोग,
या पवन कोई जाणे भव्, सो आपे करता, आपे दैव!
" ग्यान सरीखा गिरु ना मिलिया, चित्त सरीखा चेला,
मन सरीखा मेलु ना मिलिया, ताथै, गोरख फिरै, अकेला !"
कायागढ भीतर नव लख खाई, दसवेँ द्वार अवधू ताली लाई !
कायागढ भीतर देव देहुरा कासी, सहज सुभाइ मिले अवनासी !
बदन्त गोरखनाथ सुणौ, नर लोइ, कायागढ जीतेगा बिरला नर कोई ! "
-- सँकलन कर्ता :VINOD KUMAR JAKHAR (DADREWA)
लावण्यम का संभार
रविवार, 2 सितंबर 2012
गोगाजी के गुरू सिद्ध गोरक्षनाथ का परिचय !
सिद्ध गोरक्षनाथ को प्रणाम
सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना आरम्भ हुई। इस पंथ को चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) माने जाते हैं। इस पंथ के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। कहा यह भी जाता है कि सिद्धमत और नाथमत एक ही हैं।
गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है।
गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है।
गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिनका नाथ सम्प्रदाय में विलय हो गया। शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे।
गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्यम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया। गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे।
जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठिन (आड़े-तिरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अचम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि 'यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।'
गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।
सिद्ध योगी : गोरखनाथ के हठयोग की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं :- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि। 13वीं सदी में इन्होंने गोरख वाणी का प्रचार-प्रसार किया था। यह एकेश्वरवाद पर बल देते थे, ब्रह्मवादी थे तथा ईश्वर के साकार रूप के सिवाय शिव के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं मानते थे।
नाथ सम्प्रदाय गुरु गोरखनाथ से भी पुराना है। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। पूर्व में इस समप्रदाय का विस्तार असम और उसके आसपास के इलाकों में ही ज्यादा रहा, बाद में समूचे प्राचीन भारत में इनके योग मठ स्थापित हुए। आगे चलकर यह सम्प्रदाय भी कई भागों में विभक्त होता चला गया।
महायोगी गुरु गोरखनाथ
महायोगी गोरखनाथ मध्ययुग (11वीं शताब्दी अनुमानित) के एक विशिष्ट महापुरुष थे। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) थे। इन दोनों ने नाथ सम्प्रदाय को सुव्यवस्थित कर इसका विस्तार किया। इस सम्प्रदाय के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है।
गुरु गोरखनाथ हठयोग के आचार्य थे। कहा जाता है कि एक बार गोरखनाथ समाधि में लीन थे। इन्हें गहन समाधि में देखकर माँ पार्वती ने भगवान शिव से उनके बारे में पूछा। शिवजी बोले, लोगों को योग शिक्षा देने के लिए ही उन्होंने गोरखनाथ के रूप में अवतार लिया है। इसलिए गोरखनाथ को शिव का अवतार भी माना जाता है। इन्हें चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। इनके उपदेशों में योग और शैव तंत्रों का सामंजस्य है। ये नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखनाथ की लिखी गद्य-पद्य की चालीस रचनाओं का परिचय प्राप्त है। इनकी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को अधिक महत्व दिया है। गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात् समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।
गोरखनाथ के जीवन से सम्बंधित एक रोचक कथा इस प्रकार है- एक राजा की प्रिय रानी का स्वर्गवास हो गया। शोक के मारे राजा का बुरा हाल था। जीने की उसकी इच्छा ही समाप्त हो गई। वह भी रानी की चिता में जलने की तैयारी करने लगा। लोग समझा-बुझाकर थक गए पर वह किसी की बात सुनने को तैयार नहीं था। इतने में वहां गुरु गोरखनाथ आए। आते ही उन्होंने अपनी हांडी नीचे पटक दी और जोर-जोर से रोने लग गए। राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि वह तो अपनी रानी के लिए रो रहा है, पर गोरखनाथ जी क्यों रो रहे हैं। उसने गोरखनाथ के पास आकर पूछा, 'महाराज, आप क्यों रो रहे हैं?' गोरखनाथ ने उसी तरह रोते हुए कहा, 'क्या करूं? मेरा सर्वनाश हो गया। मेरी हांडी टूट गई है। मैं इसी में भिक्षा मांगकर खाता था। हांडी रे हांडी।' इस पर राजा ने कहा, 'हांडी टूट गई तो इसमें रोने की क्या बात है? ये तो मिट्टी के बर्तन हैं। साधु होकर आप इसकी इतनी चिंता करते हैं।' गोरखनाथ बोले, 'तुम मुझे समझा रहे हो। मैं तो रोकर काम चला रहा हूं तुम तो मरने के लिए तैयार बैठे हो।' गोरखनाथ की बात का आशय समझकर राजा ने जान देने का विचार त्याग दिया।
कहा जाता है कि राजकुमार बप्पा रावल जब किशोर अवस्था में अपने साथियों के साथ राजस्थान के जंगलों में शिकार करने के लिए गए थे, तब उन्होंने जंगल में संत गुरू गोरखनाथ को ध्यान में बैठे हुए पाया। बप्पा रावल ने संत के नजदीक ही रहना शुरू कर दिया और उनकी सेवा करते रहे। गोरखनाथ जी जब ध्यान से जागे तो बप्पा की सेवा से खुश होकर उन्हें एक तलवार दी जिसके बल पर ही चित्तौड़ राज्य की स्थापना हुई।
गोरखनाथ जी ने नेपाल और पाकिस्तान में भी योग साधना की। पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में स्थित गोरख पर्वत का विकास एक पर्यटन स्थल के रूप में किया जा रहा है। इसके निकट ही झेलम नदी के किनारे राँझा ने गोरखनाथ से योग दीक्षा ली थी। नेपाल में भी गोरखनाथ से सम्बंधित कई तीर्थ स्थल हैं। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर शहर का नाम गोरखनाथ जी के नाम पर ही पड़ा है। यहाँ पर स्थित गोरखनाथ जी का मंदिर दर्शनीय है।
गोरखनाथ जी से सम्बंधित एक कथा राजस्थान में बहुत प्रचलित है। राजस्थान के महापुरूष गोगाजी का जन्म गुरू गोरखनाथ के वरदान से हुआ था। गोगाजी की माँ बाछल देवी निःसंतान थी। संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नहीं मिला। गुरू गोरखनाथ 'गोगामेडी' के टीले पर तपस्या कर रहे थे। बाछल देवी उनकी शरण मे गईं तथा गुरू गोरखनाथ ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गई और तदुपरांत गोगाजी का जन्म हुआ। गुगल फल के नाम से इनका नाम गोगाजी पड़ा। गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा बने। गोगामेडी में गोगाजी का मंदिर एक ऊंचे टीले पर मस्जिदनुमा बना हुआ है, इसकी मीनारें मुस्लिम स्थापत्य कला का बोध कराती हैं। कहा जाता है कि फिरोजशाह तुगलक सिंध प्रदेश को विजयी करने जाते समय गोगामेडी में ठहरे थे। रात के समय बादशाह तुगलक व उसकी सेना ने एक चमत्कारी दृश्य देखा कि मशालें लिए घोड़ों पर सेना आ रही है। तुगलक की सेना में हाहाकार मच गया। तुगलक की सेना के साथ आए धार्मिक विद्वानों ने बताया कि यहां कोई महान सिद्ध है जो प्रकट होना चाहता है। फिरोज तुगलक ने लड़ाई के बाद आते समय गोगामेडी में मस्जिदनुमा मंदिर का निर्माण करवाया। यहाँ सभी धर्मो के भक्तगण गोगा मजार के दर्शनों हेतु भादौं (भाद्रपद) मास में उमड़ पडते हैं।
गोगाजी की जन्म स्थान ददरेवा में भी गोरख मंदिर बना हुआ है जिसको गोरख टिल्ला कहते है जहाँ वर्तमान में बाल योगी महंत श्री कृषण नाथ जी मंदिर के मुख्य पुजारी है इनसे पहले अमर बाबा महंत पूरण नाथ जी थे, ददरेवा से मिठडी पट्टा रोड पर गोरख नाथ जी का मंदिर बना हुआ है !
गोरखनाथ जी की जानकारी
गोरक्षनाथ जी
नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोरक्षनाथ जी के बारे में लिखित उल्लेख हमारे पुराणों में भी मिलते है। विभिन्न पुराणों में इससे संबंधित कथाएँ मिलती हैं। इसके साथ ही साथ बहुत सी पारंपरिक कथाएँ और किंवदंतियाँ भी समाज में प्रसारित है। उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, बंगाल, पश्चिमी भारत, सिंध तथा पंजाब में और भारत के बाहर नेपाल में भी ये कथाएँ प्रचलित हैं। ऐसे ही कुछ आख्यानों का वर्णन यहाँ किया जा रहा हैं।
1. गोरक्षनाथ जी के आध्यात्मिक जीवन की शुरूआत से संबंधित कथाएँ विभिन्न स्थानों में पाई जाती हैं। इनके गुरू के संबंध में विभिन्न मान्यताएँ हैं। परंतु सभी मान्यताएँ उनके दो गुरूऑ के होने के बारे में एकमत हैं। ये थे-आदिनाथ और मत्स्येंद्रनाथ। चूंकि गोरक्षनाथ जी के अनुयायी इन्हें एक दैवी पुरूष मानते थे, इसीलिये उन्होनें इनके जन्म स्थान तथा समय के बारे में जानकारी देने से हमेशा इन्कार किया। किंतु गोरक्षनाथ जी के भ्रमण से संबंधित बहुत से कथन उपलब्ध हैं। नेपालवासियों का मानना हैं कि काठमांडु में गोरक्षनाथ का आगमन पंजाब से या कम से कम नेपाल की सीमा के बाहर से ही हुआ था। ऐसी भी मान्यता है कि काठमांडु में पशुपतिनाथ के मंदिर के पास ही उनका निवास था। कहीं-कहीं इन्हें अवध का संत भी माना गया है।
2. नाथ संप्रदाय के कुछ संतो का ये भी मानना है कि संसार के अस्तित्व में आने से पहले उनका संप्रदाय अस्तित्व में था।इस मान्यता के अनुसार संसार की उत्पत्ति होते समय जब विष्णु कमल से प्रकट हुए थे, तब गोरक्षनाथ जी पटल में थे। भगवान विष्णु जम के विनाश से भयभीत हुए और पटल पर गये और गोरक्षनाथ जी से सहायता मांगी। गोरक्षनाथ जी ने कृपा की और अपनी धूनी में से मुट्ठी भर भभूत देते हुए कहा कि जल के ऊपर इस भभूति का छिड़काव करें, इससे वह संसार की रचना करने में समर्थ होंगे। गोरक्षनाथ जी ने जैसा कहा, वैस ही हुआ और इसके बाद ब्रह्मा, विष्णु और महेश श्री गोर-नाथ जी के प्रथम शिष्य बने।
3. एक मानव-उपदेशक से भी ज्यादा श्री गोरक्षनाथ जी को काल के साधारण नियमों से परे एक ऐसे अवतार के रूप में देखा गया जो विभिन्न कालों में धरती के विभिन्न स्थानों पर प्रकट हुए।
सतयुग में वो लाहौर पार पंजाब के पेशावर में रहे, त्रेतायुग में गोरखपुर में निवास किया, द्वापरयुग में द्वारिका के पार हरभुज में और कलियुग में गोरखपुर के पश्चिमी काठियावाड़ के गोरखमढ़ी(गोरखमंडी) में तीन महीने तक यात्रा की।
4.वर्तमान मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को श्री गोरक्षनाथ जी का गुरू कहा जाता है। कबीर गोरक्षनाथ की 'गोरक्षनाथ जी की गोष्ठी ' में उन्होनें अपने आपको मत्स्येंद्रनाथ से पूर्ववर्ती योगी थे, किन्तु अब उन्हें और शिव को एक ही माना जाता है और इस नाम का प्रयोग भगवान शिव अर्थात् सर्वश्रेष्ठ योगी के संप्रदाय को उद्गम के संधान की कोशिश के अंतर्गत किया जाता है।
5. गोरक्षनाथ के करीबी माने जाने वाले मत्स्येंद्रनाथ में मनुष्यों की दिलचस्पी ज्यादा रही हैं। उन्हें नेपाल के शासकों का अधिष्ठाता कुल गुरू माना जाता हैं। उन्हें बौद्ध संत (भिक्षु) भी माना गया है,जिन्होनें आर्यावलिकिटेश्वर के नाम से पदमपवाणि का अवतार लिया। उनके कुछ लीला स्थल नेपाल राज्य से बाहर के भी है और कहा जाता है लि भगवान बुद्ध के निर्देश पर वो नेपाल आये थे। ऐसा माना जाता है कि आर्यावलिकिटेश्वर पद्मपाणि बोधिसत्व ने शिव को योग की शिक्षा दी थी। उनकी आज्ञानुसार घर वापस लौटते समय समुद्र के तट पर शिव पार्वती को इसका ज्ञान दिया था। शिव के कथन के बीच पार्वती को नींद आ गयी, परन्तु मछली (मत्स्य) रूप धारण किये हुये लोकेश्वर ने इसे सुना। बाद में वहीं मत्स्येंद्रनाथ के नाम से जाने गये।
6. एक अन्य मान्यता के अनुसार श्री गोरक्षनाथ के द्वारा आरोपित बारह वर्ष से चले आ रहे सूखे से नेपाल की रक्षा करने के लिये मत्स्येंद्रनाथ को असम के कपोतल पर्वत से बुलाया गया था।
7.एक मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को हिंदू परंपरा का अंग माना गया है। सतयुग में उधोधर नामक एक परम सात्विक राजा थे। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनका दाह संस्कार किया गया परंतु उनकी नाभि अक्षत रही। उनके शरीर के उस अनजले अंग को नदी में प्रवाहित कर दिया गया, जिसे एक मछली ने अपना आहार बना लिया। तदोपरांत उसी मछ्ली के उदर से मत्स्येंद्रनाथ का जन्म हुआ। अपने पूर्व जन्म के पुण्य के फल के अनुसार वो इस जन्म में एक महान संत बने।
8.एक और मान्यता के अनुसार एक बार मत्स्येंद्रनाथ लंका गये और वहां की महारानी के प्रति आसक्त हो गये। जब गोरक्षनाथ जी ने अपने गुरु के इस अधोपतन के बारे में सुना तो वह उसकी तलाश मे लंका पहुँचे। उन्होंने मत्स्येंद्रनाथ को राज दरबार में पाया और उनसे जवाब मांगा । मत्स्येंद्रनाथ ने रानी को त्याग दिया,परंतु रानी से उत्पन्न अपने दोनों पुत्रों को साथ ले लिया। वही पुत्र आगे चलकर पारसनाथ और नीमनाथ के नाम से जाने गये,जिन्होंने जैन धर्म की स्थापना की।
9.एक नेपाली मान्यता के अनुसार, मत्स्येंद्रनाथ ने अपनी योग शक्ति के बल पर अपने शरीर का त्याग कर उसे अपने शिष्य गोरक्षनाथ की देखरेख में छोड़ दिया और तुरंत ही मृत्यु को प्राप्त हुए और एक राजा के शरीर में प्रवेश किया। इस अवस्था में मत्स्येंद्रनाथ को लोभ हो आया। भाग्यवश अपने गुरु के शरीर को देखरेख कर रहे गोरक्षनाथ जी उन्हें चेतन अवस्था में वापस लाये और उनके गुरु अपने शरीर में वापस लौट आयें।
10. संत कबीर पंद्रहवीं शताब्दी के भक्त कवि थे। इनके उपदेशों से गुरुनानक भी लाभान्वित हुए थे। संत कबीर को भी गोरक्षनाथ जी का समकालीन माना जाता हैं। "गोरक्षनाथ जी की गोष्ठी " में कबीर और गोरक्षनाथ के शास्त्रार्थ का भी वर्णन है। इस आधार पर इतिहासकर विल्सन गोरक्षनाथ जी को पंद्रहवीं शताब्दी का मानते हैं।
11. पंजाब में चली आ रही एक मान्यता के अनुसार राजा रसालु और उनके सौतेले भाई पुरान भगत भी गोरक्षनाथ से संबंधित थे। रसालु का यश अफगानिस्तान से लेकर बंगाल तक फैला हुआ था और पुरान पंजाब के एक प्रसिद्ध संत थे। ये दोनों ही गोरक्षनाथ जी के शिष्य बने और पुरान तो एक प्रसिद्ध योगी बने। जिस कुँए के पास पुरान वर्षो तक रहे, वह आज भी सियालकोट में विराजमान है। रसालु सियालकोट के प्रसिद्ध सालवाहन के पुत्र थे।
12. बंगाल से लेकर पश्चिमी भारत तक और सिंध से पंजाब में गोपीचंद, रानी पिंगला और भर्तृहरि से जुड़ी एक और मान्यता भी है। इसके अनुसार गोपीचंद की माता मानवती को भर्तृहरि की बहन माना जाता है। भर्तृहरि ने अपनी पत्नी रानी पिंगला की मृत्यु के पश्चात् अपनी राजगद्दी अपने भाई उज्जैन के विक्रमादित्य (चंन्द्रगुप्त द्वितीय) के नाम कर दी थी। भर्तृहरि बाद में गोरक्षनाथी बन गये थे।
विभिन्न मान्यताओं को तथा तथ्यों को ध्यान में रखते हुये ये निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गोरक्षनाथ जी का जीवन काल तेरहवीं शताब्दी से पहले का नहीं था।
संकलित by -विनोद कुमार जाखड़
मोबाइल no .+919983318589.
सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना आरम्भ हुई। इस पंथ को चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) माने जाते हैं। इस पंथ के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। कहा यह भी जाता है कि सिद्धमत और नाथमत एक ही हैं।
गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है।
गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है।
गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिनका नाथ सम्प्रदाय में विलय हो गया। शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे।
गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्यम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया। गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे।
जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठिन (आड़े-तिरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अचम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि 'यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।'
गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।
सिद्ध योगी : गोरखनाथ के हठयोग की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं :- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि। 13वीं सदी में इन्होंने गोरख वाणी का प्रचार-प्रसार किया था। यह एकेश्वरवाद पर बल देते थे, ब्रह्मवादी थे तथा ईश्वर के साकार रूप के सिवाय शिव के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं मानते थे।
नाथ सम्प्रदाय गुरु गोरखनाथ से भी पुराना है। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। पूर्व में इस समप्रदाय का विस्तार असम और उसके आसपास के इलाकों में ही ज्यादा रहा, बाद में समूचे प्राचीन भारत में इनके योग मठ स्थापित हुए। आगे चलकर यह सम्प्रदाय भी कई भागों में विभक्त होता चला गया।
महायोगी गुरु गोरखनाथ
महायोगी गोरखनाथ मध्ययुग (11वीं शताब्दी अनुमानित) के एक विशिष्ट महापुरुष थे। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) थे। इन दोनों ने नाथ सम्प्रदाय को सुव्यवस्थित कर इसका विस्तार किया। इस सम्प्रदाय के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है।
गुरु गोरखनाथ हठयोग के आचार्य थे। कहा जाता है कि एक बार गोरखनाथ समाधि में लीन थे। इन्हें गहन समाधि में देखकर माँ पार्वती ने भगवान शिव से उनके बारे में पूछा। शिवजी बोले, लोगों को योग शिक्षा देने के लिए ही उन्होंने गोरखनाथ के रूप में अवतार लिया है। इसलिए गोरखनाथ को शिव का अवतार भी माना जाता है। इन्हें चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। इनके उपदेशों में योग और शैव तंत्रों का सामंजस्य है। ये नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखनाथ की लिखी गद्य-पद्य की चालीस रचनाओं का परिचय प्राप्त है। इनकी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को अधिक महत्व दिया है। गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात् समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।
गोरखनाथ के जीवन से सम्बंधित एक रोचक कथा इस प्रकार है- एक राजा की प्रिय रानी का स्वर्गवास हो गया। शोक के मारे राजा का बुरा हाल था। जीने की उसकी इच्छा ही समाप्त हो गई। वह भी रानी की चिता में जलने की तैयारी करने लगा। लोग समझा-बुझाकर थक गए पर वह किसी की बात सुनने को तैयार नहीं था। इतने में वहां गुरु गोरखनाथ आए। आते ही उन्होंने अपनी हांडी नीचे पटक दी और जोर-जोर से रोने लग गए। राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि वह तो अपनी रानी के लिए रो रहा है, पर गोरखनाथ जी क्यों रो रहे हैं। उसने गोरखनाथ के पास आकर पूछा, 'महाराज, आप क्यों रो रहे हैं?' गोरखनाथ ने उसी तरह रोते हुए कहा, 'क्या करूं? मेरा सर्वनाश हो गया। मेरी हांडी टूट गई है। मैं इसी में भिक्षा मांगकर खाता था। हांडी रे हांडी।' इस पर राजा ने कहा, 'हांडी टूट गई तो इसमें रोने की क्या बात है? ये तो मिट्टी के बर्तन हैं। साधु होकर आप इसकी इतनी चिंता करते हैं।' गोरखनाथ बोले, 'तुम मुझे समझा रहे हो। मैं तो रोकर काम चला रहा हूं तुम तो मरने के लिए तैयार बैठे हो।' गोरखनाथ की बात का आशय समझकर राजा ने जान देने का विचार त्याग दिया।
कहा जाता है कि राजकुमार बप्पा रावल जब किशोर अवस्था में अपने साथियों के साथ राजस्थान के जंगलों में शिकार करने के लिए गए थे, तब उन्होंने जंगल में संत गुरू गोरखनाथ को ध्यान में बैठे हुए पाया। बप्पा रावल ने संत के नजदीक ही रहना शुरू कर दिया और उनकी सेवा करते रहे। गोरखनाथ जी जब ध्यान से जागे तो बप्पा की सेवा से खुश होकर उन्हें एक तलवार दी जिसके बल पर ही चित्तौड़ राज्य की स्थापना हुई।
गोरखनाथ जी ने नेपाल और पाकिस्तान में भी योग साधना की। पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में स्थित गोरख पर्वत का विकास एक पर्यटन स्थल के रूप में किया जा रहा है। इसके निकट ही झेलम नदी के किनारे राँझा ने गोरखनाथ से योग दीक्षा ली थी। नेपाल में भी गोरखनाथ से सम्बंधित कई तीर्थ स्थल हैं। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर शहर का नाम गोरखनाथ जी के नाम पर ही पड़ा है। यहाँ पर स्थित गोरखनाथ जी का मंदिर दर्शनीय है।
गोरखनाथ जी से सम्बंधित एक कथा राजस्थान में बहुत प्रचलित है। राजस्थान के महापुरूष गोगाजी का जन्म गुरू गोरखनाथ के वरदान से हुआ था। गोगाजी की माँ बाछल देवी निःसंतान थी। संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नहीं मिला। गुरू गोरखनाथ 'गोगामेडी' के टीले पर तपस्या कर रहे थे। बाछल देवी उनकी शरण मे गईं तथा गुरू गोरखनाथ ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गई और तदुपरांत गोगाजी का जन्म हुआ। गुगल फल के नाम से इनका नाम गोगाजी पड़ा। गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा बने। गोगामेडी में गोगाजी का मंदिर एक ऊंचे टीले पर मस्जिदनुमा बना हुआ है, इसकी मीनारें मुस्लिम स्थापत्य कला का बोध कराती हैं। कहा जाता है कि फिरोजशाह तुगलक सिंध प्रदेश को विजयी करने जाते समय गोगामेडी में ठहरे थे। रात के समय बादशाह तुगलक व उसकी सेना ने एक चमत्कारी दृश्य देखा कि मशालें लिए घोड़ों पर सेना आ रही है। तुगलक की सेना में हाहाकार मच गया। तुगलक की सेना के साथ आए धार्मिक विद्वानों ने बताया कि यहां कोई महान सिद्ध है जो प्रकट होना चाहता है। फिरोज तुगलक ने लड़ाई के बाद आते समय गोगामेडी में मस्जिदनुमा मंदिर का निर्माण करवाया। यहाँ सभी धर्मो के भक्तगण गोगा मजार के दर्शनों हेतु भादौं (भाद्रपद) मास में उमड़ पडते हैं।
गोगाजी की जन्म स्थान ददरेवा में भी गोरख मंदिर बना हुआ है जिसको गोरख टिल्ला कहते है जहाँ वर्तमान में बाल योगी महंत श्री कृषण नाथ जी मंदिर के मुख्य पुजारी है इनसे पहले अमर बाबा महंत पूरण नाथ जी थे, ददरेवा से मिठडी पट्टा रोड पर गोरख नाथ जी का मंदिर बना हुआ है !
गोरखनाथ जी की जानकारी
गोरक्षनाथ जी
नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोरक्षनाथ जी के बारे में लिखित उल्लेख हमारे पुराणों में भी मिलते है। विभिन्न पुराणों में इससे संबंधित कथाएँ मिलती हैं। इसके साथ ही साथ बहुत सी पारंपरिक कथाएँ और किंवदंतियाँ भी समाज में प्रसारित है। उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, बंगाल, पश्चिमी भारत, सिंध तथा पंजाब में और भारत के बाहर नेपाल में भी ये कथाएँ प्रचलित हैं। ऐसे ही कुछ आख्यानों का वर्णन यहाँ किया जा रहा हैं।
1. गोरक्षनाथ जी के आध्यात्मिक जीवन की शुरूआत से संबंधित कथाएँ विभिन्न स्थानों में पाई जाती हैं। इनके गुरू के संबंध में विभिन्न मान्यताएँ हैं। परंतु सभी मान्यताएँ उनके दो गुरूऑ के होने के बारे में एकमत हैं। ये थे-आदिनाथ और मत्स्येंद्रनाथ। चूंकि गोरक्षनाथ जी के अनुयायी इन्हें एक दैवी पुरूष मानते थे, इसीलिये उन्होनें इनके जन्म स्थान तथा समय के बारे में जानकारी देने से हमेशा इन्कार किया। किंतु गोरक्षनाथ जी के भ्रमण से संबंधित बहुत से कथन उपलब्ध हैं। नेपालवासियों का मानना हैं कि काठमांडु में गोरक्षनाथ का आगमन पंजाब से या कम से कम नेपाल की सीमा के बाहर से ही हुआ था। ऐसी भी मान्यता है कि काठमांडु में पशुपतिनाथ के मंदिर के पास ही उनका निवास था। कहीं-कहीं इन्हें अवध का संत भी माना गया है।
2. नाथ संप्रदाय के कुछ संतो का ये भी मानना है कि संसार के अस्तित्व में आने से पहले उनका संप्रदाय अस्तित्व में था।इस मान्यता के अनुसार संसार की उत्पत्ति होते समय जब विष्णु कमल से प्रकट हुए थे, तब गोरक्षनाथ जी पटल में थे। भगवान विष्णु जम के विनाश से भयभीत हुए और पटल पर गये और गोरक्षनाथ जी से सहायता मांगी। गोरक्षनाथ जी ने कृपा की और अपनी धूनी में से मुट्ठी भर भभूत देते हुए कहा कि जल के ऊपर इस भभूति का छिड़काव करें, इससे वह संसार की रचना करने में समर्थ होंगे। गोरक्षनाथ जी ने जैसा कहा, वैस ही हुआ और इसके बाद ब्रह्मा, विष्णु और महेश श्री गोर-नाथ जी के प्रथम शिष्य बने।
3. एक मानव-उपदेशक से भी ज्यादा श्री गोरक्षनाथ जी को काल के साधारण नियमों से परे एक ऐसे अवतार के रूप में देखा गया जो विभिन्न कालों में धरती के विभिन्न स्थानों पर प्रकट हुए।
सतयुग में वो लाहौर पार पंजाब के पेशावर में रहे, त्रेतायुग में गोरखपुर में निवास किया, द्वापरयुग में द्वारिका के पार हरभुज में और कलियुग में गोरखपुर के पश्चिमी काठियावाड़ के गोरखमढ़ी(गोरखमंडी) में तीन महीने तक यात्रा की।
4.वर्तमान मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को श्री गोरक्षनाथ जी का गुरू कहा जाता है। कबीर गोरक्षनाथ की 'गोरक्षनाथ जी की गोष्ठी ' में उन्होनें अपने आपको मत्स्येंद्रनाथ से पूर्ववर्ती योगी थे, किन्तु अब उन्हें और शिव को एक ही माना जाता है और इस नाम का प्रयोग भगवान शिव अर्थात् सर्वश्रेष्ठ योगी के संप्रदाय को उद्गम के संधान की कोशिश के अंतर्गत किया जाता है।
5. गोरक्षनाथ के करीबी माने जाने वाले मत्स्येंद्रनाथ में मनुष्यों की दिलचस्पी ज्यादा रही हैं। उन्हें नेपाल के शासकों का अधिष्ठाता कुल गुरू माना जाता हैं। उन्हें बौद्ध संत (भिक्षु) भी माना गया है,जिन्होनें आर्यावलिकिटेश्वर के नाम से पदमपवाणि का अवतार लिया। उनके कुछ लीला स्थल नेपाल राज्य से बाहर के भी है और कहा जाता है लि भगवान बुद्ध के निर्देश पर वो नेपाल आये थे। ऐसा माना जाता है कि आर्यावलिकिटेश्वर पद्मपाणि बोधिसत्व ने शिव को योग की शिक्षा दी थी। उनकी आज्ञानुसार घर वापस लौटते समय समुद्र के तट पर शिव पार्वती को इसका ज्ञान दिया था। शिव के कथन के बीच पार्वती को नींद आ गयी, परन्तु मछली (मत्स्य) रूप धारण किये हुये लोकेश्वर ने इसे सुना। बाद में वहीं मत्स्येंद्रनाथ के नाम से जाने गये।
6. एक अन्य मान्यता के अनुसार श्री गोरक्षनाथ के द्वारा आरोपित बारह वर्ष से चले आ रहे सूखे से नेपाल की रक्षा करने के लिये मत्स्येंद्रनाथ को असम के कपोतल पर्वत से बुलाया गया था।
7.एक मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को हिंदू परंपरा का अंग माना गया है। सतयुग में उधोधर नामक एक परम सात्विक राजा थे। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनका दाह संस्कार किया गया परंतु उनकी नाभि अक्षत रही। उनके शरीर के उस अनजले अंग को नदी में प्रवाहित कर दिया गया, जिसे एक मछली ने अपना आहार बना लिया। तदोपरांत उसी मछ्ली के उदर से मत्स्येंद्रनाथ का जन्म हुआ। अपने पूर्व जन्म के पुण्य के फल के अनुसार वो इस जन्म में एक महान संत बने।
8.एक और मान्यता के अनुसार एक बार मत्स्येंद्रनाथ लंका गये और वहां की महारानी के प्रति आसक्त हो गये। जब गोरक्षनाथ जी ने अपने गुरु के इस अधोपतन के बारे में सुना तो वह उसकी तलाश मे लंका पहुँचे। उन्होंने मत्स्येंद्रनाथ को राज दरबार में पाया और उनसे जवाब मांगा । मत्स्येंद्रनाथ ने रानी को त्याग दिया,परंतु रानी से उत्पन्न अपने दोनों पुत्रों को साथ ले लिया। वही पुत्र आगे चलकर पारसनाथ और नीमनाथ के नाम से जाने गये,जिन्होंने जैन धर्म की स्थापना की।
9.एक नेपाली मान्यता के अनुसार, मत्स्येंद्रनाथ ने अपनी योग शक्ति के बल पर अपने शरीर का त्याग कर उसे अपने शिष्य गोरक्षनाथ की देखरेख में छोड़ दिया और तुरंत ही मृत्यु को प्राप्त हुए और एक राजा के शरीर में प्रवेश किया। इस अवस्था में मत्स्येंद्रनाथ को लोभ हो आया। भाग्यवश अपने गुरु के शरीर को देखरेख कर रहे गोरक्षनाथ जी उन्हें चेतन अवस्था में वापस लाये और उनके गुरु अपने शरीर में वापस लौट आयें।
10. संत कबीर पंद्रहवीं शताब्दी के भक्त कवि थे। इनके उपदेशों से गुरुनानक भी लाभान्वित हुए थे। संत कबीर को भी गोरक्षनाथ जी का समकालीन माना जाता हैं। "गोरक्षनाथ जी की गोष्ठी " में कबीर और गोरक्षनाथ के शास्त्रार्थ का भी वर्णन है। इस आधार पर इतिहासकर विल्सन गोरक्षनाथ जी को पंद्रहवीं शताब्दी का मानते हैं।
11. पंजाब में चली आ रही एक मान्यता के अनुसार राजा रसालु और उनके सौतेले भाई पुरान भगत भी गोरक्षनाथ से संबंधित थे। रसालु का यश अफगानिस्तान से लेकर बंगाल तक फैला हुआ था और पुरान पंजाब के एक प्रसिद्ध संत थे। ये दोनों ही गोरक्षनाथ जी के शिष्य बने और पुरान तो एक प्रसिद्ध योगी बने। जिस कुँए के पास पुरान वर्षो तक रहे, वह आज भी सियालकोट में विराजमान है। रसालु सियालकोट के प्रसिद्ध सालवाहन के पुत्र थे।
12. बंगाल से लेकर पश्चिमी भारत तक और सिंध से पंजाब में गोपीचंद, रानी पिंगला और भर्तृहरि से जुड़ी एक और मान्यता भी है। इसके अनुसार गोपीचंद की माता मानवती को भर्तृहरि की बहन माना जाता है। भर्तृहरि ने अपनी पत्नी रानी पिंगला की मृत्यु के पश्चात् अपनी राजगद्दी अपने भाई उज्जैन के विक्रमादित्य (चंन्द्रगुप्त द्वितीय) के नाम कर दी थी। भर्तृहरि बाद में गोरक्षनाथी बन गये थे।
विभिन्न मान्यताओं को तथा तथ्यों को ध्यान में रखते हुये ये निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गोरक्षनाथ जी का जीवन काल तेरहवीं शताब्दी से पहले का नहीं था।
संकलित by -विनोद कुमार जाखड़
मोबाइल no .+919983318589.
‘पाबू, हडबू, रामदे, माँगलिया, मेहा। पाँचू पीर पधारज्यों, गोगाजी महाराज '
नाथ परम्परा के महान योगी
राजस्थान भाषा में एक चर्चित दोहा है : ‘‘पाबू, हडबू, रामदे, माँगलिया, मेहा।पाँचू पीर पधारज्यों, गोगाजी महाराज '
वीर गोगादेव के जन्मस्थान, जो राजस्थान के चुरू जिले के दाद्रगढ़ (ददरेवा) में स्थित है। जहाँ पर सभी धर्म और सम्प्रदाय के लोग मत्था टेकने के लिए दूर-दूर से आते हैं। जैसा की आप तो जानते ही हो की -
नाथ परम्परा के साधुओं के लिए यह स्थान बहुत महत्व रखता है। दूसरी ओर कायम खानी मुस्लिम समाज उनको जाहर पीर के नाम से पुकारते हैं तथा उक्त स्थान पर मत्था टेकने और मन्नत माँगने आते हैं। इस तरह यह स्थान हिंदू और मुस्लिम एकता का प्रतीक है।
मध्यकालीन महापुरुष गोगाजी हिंदू, मुस्लिम, सिख संप्रदायों की श्रद्घा अर्जित कर एक धर्मनिरपेक्ष लोकदेवता के नाम से भगवान के रूप में प्रसिद्ध हुए। गोगाजी का जन्म राजस्थान के ददरेवा (चुरू) चौहान वंश के राजपूत शासक जैबर (जेवरसिंह) की पत्नी बाछल के गर्भ से गुरु गोरखनाथ के वरदान से भादो सुदी नवमी को हुआ था। चौहान वंश में राजा पृथ्वीराज चौहान के बाद गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा थे। गोगाजी का राज्य सतलुज सें हांसी (हरियाणा) तक था।
लोकमान्यता व लोककथाओं के अनुसार गोगाजी को साँपों के देवता के रूप में भी
पूजा जाता है। लोग उन्हें गोगाजी चौहान, गुग्गा, जाहिर वीर गातोड जी व जाहर पीर के
नामों से पुकारते हैं। यह गुरु गोरक्षनाथ के प्रमुख शिष्यों में से एक थे।
राजस्थान के छह सिद्धों में गोगाजी को समय की दृष्टि से प्रथम माना गया है।
जयपुर से लगभग 250 किमी दूर स्थित सादलपुर के पास (ददरेवा) में गोगादेवजी का जन्म स्थान है। ददरेवा चुरू के अंतर्गत आता है। गोगादेव की जन्मभूमि पर आज भी उनके घोड़े का अस्तबल है और सैकड़ों वर्ष बीत गए, लेकिन उनके घोड़े की रकाब अभी भी वहीं पर विद्यमान है। उक्त जन्म स्थान पर गुरु गोरक्षनाथ का आश्रम भी है और वहीं है गोगादेव की घोड़े पर सवार मूर्ति। भक्तजन इस स्थान पर कीर्तन करते हुए आते हैं और जन्म स्थान पर बने मंदिर पर मत्था टेककर मन्नत माँगते हैं।
हनुमानगढ़ जिले के नोहर उपखंड में स्थित गोगाजी के पावन धाम गोगामेड़ी स्थित गोगाजी का समाधि स्थल जन्म स्थान से लगभग 80 किमी की दूरी पर स्थित है, जो साम्प्रदायिक सद्भाव का अनूठा प्रतीक है, जहाँ एक हिन्दू व एक मुस्लिम पुजारी खड़े रहते हैं। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा से लेकर भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा तक ददरेवा व गोगा मेड़ी के मेले में वीर गोगाजी की समाधि तथा गोरखटीला स्थित गुरु गोरक्षनाथ के धूने पर शीश नवाकर भक्तजन मनौतियाँ माँगते हैं।
''गोगा पीर'' व '' जाहर वीर'' के जयकारों के साथ गोगाजी तथा गुरु गोरक्षनाथ के प्रति भक्ति की अविरल धारा बहती है। भक्तजन गुरु गोरक्षनाथ के टीले पर जाकर शीश नवाते हैं, फिर गोगाजी की समाधि पर आकर ढोक देते हैं। प्रतिवर्ष लाखों लोग गोगा जी के मंदिर में मत्था टेक तथा छड़ियों की विशेष पूजा करते हैं।
प्रदेश की लोक संस्कृति में गोगाजी के प्रति अपार आदर भाव देखते हुए कहा गया है कि ''गाँव-गाँव में खेजड़ी, गाँव-गाँव में गोगा'' वीर गोगाजी का आदर्श व्यक्तित्व भक्तजनों के लिए सदैव आकर्षण का केन्द्र रहा है।
विद्वानों व इतिहासकारों ने उनके जीवन को शौर्य, धर्म, पराक्रम व उच्च जीवन आदर्शों का प्रतीक माना है। इतिहासकारों के अनुसार गोगादेव अपने बेटों सहित मेहमूद गजनबी के आक्रमण के समय सतलुज के मार्ग की रक्षा करते हुए शहीद हो गए!
by - विनोद कुमार जाखड़
जय गुरू गीता गोपाल से साभार !शनिवार, 1 सितंबर 2012
परम शूरवीर श्री गातोड़ जी चौहान(गोगाजी )
वीरवर
श्री गातोड़ जी चौहान 11वी सदी के महान योद्धा थे। जिन्होंने महमुद गजनवी
जैसे आक्रमणकारियों से लोहा लिया व गायों कि रक्षार्थ अपने आप को बलिदान कर
दिया । गातोड़जी चौहान मारवाड़ में “गोगाजी” के नाम से प्रशिद्ध है और
मेवाड़ में “गातोड़जी” (गातरोड़जी) के नाम से प्रशिद्ध है । गातोड़जी चौहान
को कई भक्त मेवाड़ में “गौवर्धनसिंह चौहान” भी कहते है ।
इनका
जन्म ददरेवा(ददरगढ़) (चुरू) में चौहान वंश के राजपूत राजा जेवरसिंह के घर विक्रम
संवत 1003 में भाद्रपद कृष्णा नवमी को हुआ था। इनकी माता का नाम रानी बाछल
था । इनका विवाह श्रीयल के साथ हुआ था । इनके दो भाई अर्जन और सर्जन थे ।
इनका जन्म गुरु गोरखनाथ के आशीर्वाद से हुआ था । गुरु गोरखनाथ ने इन्हें
गुरु दीक्षा प्रदान की व साथ ही साथ आध्यात्मिक शिक्षा, योग शिक्षा, व
आयुर्वेद की शिक्षा प्रदान की। गुरु गोरखनाथ ने ही इन्हें सांप का जहर
उतारने की कला भी सीखाई थी। इन्हें सांपों का देवता भी कहते है ।
वर्तमान
में हनुमानगढ जिले के नोहर तहसील में स्थित गोगामेडी (घुरमेड़ी) स्थान पर
इनकी समाधि बनी हुई हैं । यहां श्रावण शुक्ल पूर्णिमा से भाद्रपद कृष्ण
अमावस्या तक पशु मेला आयोजित होता है। गोगा मेड़ी में फिरोजशाह द्वारा
निर्मित मस्जिदनुमा दरगाह हैं । जहां हिन्दु-मुस्लिम दोनों ही धर्मो के लोग
बड़ी ही श्रृद्धा के साथ मत्था टेकते हैं । यहां की भस्म से विभिन्न रोगों
का ईलाज होता है ऐसा लोगों का विश्वास हैं ।
इनसे
(गोगाजी) से युद्ध करते हुए महमुद गजनवी ने तो यहाँ तक कह दिया कि “यह तो
जाहर पीर है” अर्थात साक्षात् देवता के समान प्रकट होता है। तब हे इनका नाम
जाहर पीर गोगाजी पड़ा ।
इनका
एक स्थान उदयपुर जिले के जयसमंद झील के पास वीरपुरा नामक स्थान पर भी हैं ।
लोगो का ऐसा मानना हैं की यहाँ पर स्वयं भगवान शंकर ने गोगाजी को स्थान
दिया था अर्थात शिवलिंग यहाँ से अंर्तध्यान हो गया और वहां जाहर वीर गोगाजी
महाराज ने समाधि ले ली थी, आज भी उस स्थान पर गातोड़ जी का मन्दिर बना हुआ
हैं परन्तु वहाँ पर शिवलिंग नही हैं । यहाँ पर आने वाले भक्त उस समाधी
वाले स्थान पर जहा गडडानुमा (बांबी) स्थान बना हुआ है वह अपने हाथ पर केसर
लगाकर उन्हें (गातोड़ जी) को अर्पण करते हैं।
विनोद कुमार जाखड़
मोबाइल no .9983318589
(1)कालाजी राठोड़ से साभार !
प्रेम से बोलो जय गोगाजी !
प्रेम से बोलो जय गोगाजी !
भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की नवमी गोगा नवमी के नाम से प्रसिद्ध है। इस दिन गोगाजी का जन्मोत्सव बड़े ही हर्षोल्लास से मनाया जाता है। इस अवसर पर बाबा जाहरवीर गोगाजी के भक्तगण अपने घरों में इष्टदेव की थाड़ी बनाकर अखण्ड ज्योति जागरण कराते हैं तथा गोगादेवजी की शौर्य गाथा एवं जन्म कथा सुनते हैं। इस प्रथा को जाहरवीर का जोत कथा जागरण कहते हैं। इस दिन कहीं मेले लगते हैं ओर ददरेवा का तो नजारा ही अलग दीखता है तो कहीं भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है। ऐसी मान्यता है कि श्रीगोगादेव भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। ददरेवा बस अड्डे से गोगाजी मंदिर 01 कि .मी . है यहाँ से गोगा भगत टैक्सी या पैदल मंदिर तक जा सकते हकौन थे श्रीगोगादेव महाराज,
किवदंती के अनुसार श्रीगोगादेव का जन्म नाथ संप्रदाय के योगी गोरक्षनाथ के आशीर्वाद से हुआ था। योगी गोरक्षनाथ ने ही गोगादेवजी की माता बाछल को प्रसाद रूप में अभिमंत्रित गुग्गल दिया था। जिसके प्रभाव से महारानी बाछल से जाहरवीर (श्रीगोगादेव महाराज), पुरोहितानी से नरसिंह पाण्डे, दासी से मज्जूवीर, महतरानी से रत्नावीर तथा बन्ध्या घोड़ी से नीले का जन्म हुआ। इन सभी ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए विधर्मी राजाओं से घोर युद्ध किया जिसमें श्रीगोगादेवजी व नीलाश्व को छोड़कर अन्य वीरगति को प्राप्त हुए। अंत में गुरु गोरक्षनाथ के योग, मंत्र व प्रेरणा से श्रीजाहरवीर गोगाजी ने नीले घोड़े सहित धरती में जीवित समाधि ली। एस्लिय गोगाजी को मुस्लिम भाई भी गोगा पीर के नाम से पुकारते है !
जय गोगाजी , जय ददरेवा
ददरेवा तेरी मिटटी सोना
ददरेवा तेरी मिटटी सोना
गोगा भगतों कि मानता है की ददरेवा मैदान (रण ) की पवित्र मिटटी को काले सर्प के काटने पर लगाने से सर्प का जहर नहीं फैलता व् असाद्ये बीमारी मे काम लेने पर वह ठीक हो जाती है इस लिए लोग इस मिटटी की खीर बनाकर खाते है ! इस मिटटी का रंग सफेद है मान्यता है की इस रण मे माता बाछल का दही से भरा मटका फूट गया था इसलिय इस मिटटी का रंग सफ़ेद हो गया ,गोगाजी मेले में आने वाले श्रदालू इस मिटटी का भोग लगाकर गोगाजी यात्रा सफल मानते है ,उलेखनीय है की सावन और भादो मास मे यहां गगन भेदि गोगाजी के जयकारे लगते है गोगाजी मन्दिर से 1 किलो मीटर दूर गुरु गोरख नाथ जी का मंदिर है जहा गोरख नाथ ने माता बाछल को पुत्र प्राप्ती का वरदान दीया था इसलिय किसी ने सच्च ही कहा है -
धन्य बागड़ देश है ददरेवा नगर सुजान !
मंगलवार, 28 अगस्त 2012
गाँव -गाँव गोगो अर गाँव -गाँव खेजड़ी
विनोद कुमार जाखड़ द्वारा रचित .
जैसा कि आप सभी जानते हें कि राजस्थानी में ऐक कहावत है की -----
गाँव -गाँव गोगो अर गाँव -गाँव खेजड़ी -
वास्तव में यह कहावत सत्य है क्योंकि जाहरवीर गोगाजी महाराज जन जन के दिल में बसे हुए है , भारत की ज्यादातर जनसँख्या गाँवो में निवास करती है , और हर गाँव में गोगाजी के मंदिर हमें देखने को मिलते है ,ऐसा ही राजस्थान के चुरू ज़िले में एक गाँव है ददरेवा (गोगाजी जन्म स्थान ) जहाँ गोगाजी का जन्म हुआ था और यहां आज भी हर वर्ष सावन और भादो मास मैं विशाल मेला लगता है गोगा भगत यहां की पवित्र मिटटी का अपने माथे पर तिलक लगाकर अपने को धन्य मानते है ---
लोगो की मानता है की ददरेवा मैं एक कुआ है जो गोगाजी के समय का है जो वर्षों पहले सूख गया था . उस कुए को लोग बोड़ेया कुआ के नाम से पुकारते है और भगवान गोगाजी की कृपा से आज कल इस कुए में दूध जैसा सफेद और निर्मल पानी निकलने लग गया ह यह कुआ ददरेवा में आने वाले सभी भगतों के लिये आस्था का प्रतीक बना हुआ है !
चित्र सन्दर्भ :-----
(1) विनोद जाखड़ द्वारा भेंट गोगाजी मुर्ति !
(2) गोगाजी मन्दिर का मुख्य प्रवेस द्वार !
(3)गोगाजी मन्दिर का मुख्य प्रवेस द्वार !
शुक्रवार, 17 अगस्त 2012
गोगाजी लोकदेवता
गोगाजी लोकदेवता
गोगादेव के जन्मस्थान ददरेवा, जो राजस्थान के चुरू जिले की राजगढ़ तहसील में स्थित है। यहाँ पर सभी धर्म और सम्प्रदाय के लोग मत्था टेकने के लिए दूर-दूर से आते हैं । नाथ परम्परा के साधुओं के लिए यह स्थान बहुत महत्व रखता है। दूसरी ओर कायमखानी मुस्लिम समाज के लोग उनको जाहर पीर के नाम से पुकारते हैं तथा उक्त स्थान पर मत्था टेकने और मन्नत माँगने आते हैं। इस तरह यह स्थान हिंदू और मुस्लिम एकता का प्रतीक है।मध्यकालीन महापुरुष गोगाजी हिंदू, मुस्लिम, सिख संप्रदायों की श्रद्घा अर्जित कर एक धर्मनिरपेक्ष लोकदेवता के नाम से पीर के रूप में प्रसिद्ध हुए। गोगाजी का जन्म राजस्थान के ददरेवा (चुरू) चौहान वंश के शासक जैबर (जेवरसिंह) की पत्नी बाछल के गर्भ से गुरु गोरखनाथ के वरदान से भादो सुदी नवमी को हुआ था। चौहान वंश में राजा पृथ्वीराज चौहान के बाद गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा थे। गोगाजी का राज्य सतलुज सें हांसी (हरियाणा) तक था।लोकमान्यता व लोककथाओं के अनुसार गोगाजी को साँपों के देवता के रूप में भी पूजा जाता है। लोग उन्हें गोगाजी चौहान, गुग्गा, जाहिर वीर व जाहर पीर के नामों से पुकारते हैं। यह गुरु गोरक्षनाथ के प्रमुख शिष्यों में से एक थे। राजस्थान के छह सिद्धों में गोगाजी को समय की दृष्टि से प्रथम माना गया है।जयपुर से लगभग 250 किमी दूर स्थित सादलपुर के पास ददरेवा में गोगादेवजी का जन्म स्थान है। गोगादेव की जन्मभूमि पर आज भी उनके घोड़े का अस्तबल है और सैकड़ों वर्ष बीत गए, लेकिन उनके घोड़े की रकाब अभी भी वहीं पर विद्यमान है। उक्त जन्म स्थान पर गुरु गोरक्षनाथ का आश्रम भी है और वहीं है गोगादेव की घोड़े पर सवार मूर्ति। भक्तजन इस स्थान पर कीर्तन करते हुए आते हैं और जन्म स्थान पर बने मंदिर पर मत्था टेककर मन्नत माँगते हैं।हनुमानगढ़ जिले के नोहर उपखंड में स्थित गोगाजी के पावन धाम गोगामेड़ी स्थित गोगाजी का समाधि स्थल जन्म स्थान से लगभग 80 किमी की दूरी पर स्थित है, जो साम्प्रदायिक सद्भाव का अनूठा प्रतीक है, जहाँ एक हिन्दू व एक मुस्लिम पुजारी खड़े रहते हैं। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा से लेकर भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा तक गोगा मेड़ी के मेले में वीर गोगाजी की समाधि तथा गोरखटीला स्थित गुरु गोरक्षनाथ के धूने पर शीश नवाकर भक्तजन मनौतियाँ माँगते हैं।गोगा पीर व जाहरवीर के जयकारों के साथ गोगाजी तथा गुरु गोरक्षनाथ के प्रति भक्ति की अविरल धारा बहती है। भक्तजन गुरु गोरक्षनाथ के टीले पर जाकर शीश नवाते हैं, फिर गोगाजी की समाधि पर आकर ढोक देते हैं। प्रतिवर्ष लाखों लोग गोगा जी के मंदिर में मत्था टेक तथा छड़ियों की विशेष पूजा करते हैं। प्रदेश की लोक संस्कृति में गोगाजी के प्रति अपार आदर भाव देखते हुए कहा गया है कि गाँव-गाँव में खेजड़ी, गाँव-गाँव में गोगा वीर गोगाजी का आदर्श व्यक्तित्व भक्तजनों के लिए सदैव आकर्षण का केन्द्र रहा है।विद्वानों व इतिहासकारों ने उनके जीवन को शौर्य, धर्म, पराक्रम व उच्च जीवन आदर्शों का प्रतीक माना है। इतिहासकारों के अनुसार गोगादेव अपने बेटों सहित मेहमूद गजनबी के आक्रमण के समय सतलुज के मार्ग की रक्षा करते हुए शहीद हो गए। हवाई अड्डा लगभग 250 किमी पर स्थित है।
लोक देवता जाहरवीर गोगाजी की जन्मस्थली ददरेवा में भादवा मास के दौरान लगने वाले मेले के दृष्टिगत पंचमी (सोमवार) को श्रद्धालुओं की संख्या में और बढ़ोतरी हुई। मेले में राजस्थान के अलावा पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश व गुजरात सहित विभिन्न प्रांतों से श्रद्धालु पहुंच रहे हैं।
जातरु ददरेवा आकर न केवल धोक आदि लगाते हैं बल्कि वहां अखाड़े (ग्रुप) में बैठकर गुरु गोरक्षनाथ व उनके शिष्य जाहरवीर गोगाजी की जीवनी के किस्से अपनी-अपनी भाषा में गाकर सुनाते हैं। प्रसंगानुसार जीवनी सुनाते समय वाद्ययंत्रों में डैरूं व कांसी का कचौला विशेष रूप से बजाया जाता है। इस दौरान अखाड़े के जातरुओं में से एक जातरू अपने सिर व शरीर पर पूरे जोर से लोहे की सांकले मारता है। मान्यता है कि गोगाजी की संकलाई आने पर ऐसा किया जाता है।
गोगाजी का जन्म गुरू गोरखनाथ के वरदान से
गोरखनाथ जी से सम्बंधित एक कथा राजस्थान में बहुत प्रचलित है। राजस्थान के महापुरूष गोगाजी का जन्म गुरू गोरखनाथ के वरदान से हुआ था। गोगाजी की माँ बाछल देवी निःसंतान थी। संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नहीं मिला। गुरू गोरखनाथ ‘गोगामेडी’ के टीले पर तपस्या कर रहे थे। बाछल देवी उनकी शरण मे गईं तथा गुरू गोरखनाथ ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गई और तदुपरांत गोगाजी का जन्म हुआ। गुगल फल के नाम से इनका नाम गोगाजी पड़ा। गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा बने। गोगामेडी में गोगाजी का मंदिर एक ऊंचे टीले पर मस्जिदनुमा बना हुआ है, इसकी मीनारें मुस्लिम स्थापत्य कला का बोध कराती हैं। कहा जाता है कि फिरोजशाह तुगलक सिंध प्रदेश को विजयी करने जाते समय गोगामेडी में ठहरे थे। रात के समय बादशाह तुगलक व उसकी सेना ने एक चमत्कारी दृश्य देखा कि मशालें लिए घोड़ों पर सेना आ रही है। तुगलक की सेना में हाहाकार मच गया। तुगलक की सेना के साथ आए धार्मिक विद्वानों ने बताया कि यहां कोई महान सिद्ध है जो प्रकट होना चाहता है। फिरोज तुगलक ने लड़ाई के बाद आते समय गोगामेडी में मस्जिदनुमा मंदिर का निर्माण करवाया।बुरडक गोत्र से संबंध
बुरडक गोत्र के बडवा (भाट) श्री भवानीसिंह राव (फोन-09785459386) की बही के अभिलेखों में ददरेवा का सम्बन्ध बुरड़क गोत्र के इतिहास से है. अजमेर के चौहान वंश में राजा रतनसेण के बिरमराव पुत्र हुए. बिरमराव ने अजमेर से ददरेवा आकर राज किया. संवत 1078 (1021 AD) में किला बनाया. इनके अधीन 384 गाँव थे. बिरमराव की शादी वीरभाण की बेटी जसमादेवी गढ़वाल के साथ हुई. इनसे तीन पुत्र उत्पन्न हुए:- 1. सांवत सिंह - सांवत सिंह के पुत्र मेल सिंह, उनके पुत्र राजा धंध, उनके पुत्र इंदरचंद तथा उनके पुत्र हरकरण हुए. इनके पुत्र हर्ष तथा पुत्री जीण उत्पन्न हुयी. जीणमाता कुल देवी संवत 990 (933 AD) में प्रकट हुयी.
- 2. सबल सिंह - सबलसिंह के बेटे आलणसिंह और बालणसिंह हुए. सबलसिंह ने जैतारण का किला संवत 938 (881 AD) में आसोज बदी 10 को फ़तेह किया. इनके अधीन 240 गाँव थे.
- 3. अचल सिंह -
आलणसिंह ने संवत 979 (922 AD) में मथुरा में मंदिर बनाया तथा सोने का छत्र चढ़ाया.
ददरेवा के राव बुरडकदेव के तीन बेटे समुद्रपाल, दरपाल तथा विजयपाल हुए.
राव बुरडकदेव (b. - d.1000 AD) महमूद ग़ज़नवी के आक्रमणों के विरुद्ध राजा जयपाल की मदद के लिए लाहोर गए. वहां लड़ाई में संवत 1057 (1000 AD) को वे जुझार हुए. इनकी पत्नी तेजल शेकवाल ददरेवा में तालाब के पाल पर संवत 1058 (1001 AD) में सती हुई. राव बुरडकदेव से बुरडक गोत्र निकला.
राव बुरडकदेव के बड़े पुत्र समुद्रपाल के 2 पुत्र नरपाल एवं कुसुमपाल हुए. समुद्रपाल राजा जयपाल के पुत्र आनंदपाल की मदद के लिए 'वैहिंद' (पेशावर के निकट) गए और वहां पर जुझार हुए. संवत 1067 (1010 AD) में इनकी पत्नी पुन्यानी साम्भर में सती हुई.
विवेचना - उपरोक्त विवरण से ददरेवा के चौहान वंश में बुरड़क गोत्र के इतिहास के अवलोकन से यह स्पस्ट होता है कि राव बुरडकदेव (b. - d.1000 AD) महमूद ग़ज़नवी के आक्रमणों के विरुद्ध राजा जयपाल की मदद के लिए लाहोर गए. वहां लड़ाई में संवत 1057 (1000 AD) को वे जुझार हुए. राव बुरडकदेव के बड़े पुत्र समुद्रपाल राजा जयपाल के पुत्र आनंदपाल की मदद के लिए 'वैहिंद' (पेशावर के निकट) गए और वहां पर संवत 1067 (1010 AD) में जुझार हुए.
नरपाल के उदयसिंह और करणसिंह पुत्र हुए तथा पुत्री आभलदे हुई. आभलदे का विवाह संवत 1103 (1046 AD) में रुनिया के गोदारा कर्मसिंह के साथ हुआ. उदयसिंह के पुत्र राजपाल, राव उदणसिंह तथा भरतोजी पैदा हुए. राजपाल के पुत्र अभयपाल, धीरपाल, भोलराव, भीमदेव तथा जीतराव पैदा हुए. राजपाल संवत 1191 (1134 AD) में अजमेर के राजा सोमेसर के प्रधान सेनापति बने.
ददरेवा के चौहान वंश में ही गोगादेव भी अपने बेटों सहित महमूद गजनबी के आक्रमण के समय सतलुज के मार्ग की रक्षा करते हुए वर्ष 1024 में शहीद हो गए.
बुरडकदेव और गोगादेव में सम्बन्ध अनुसंधान का विषय है. अनुमान है की बुरडक वंशावली में बुरडकदेव की तीसरी पीढ़ी में एक उदयसी है जो संभवतः ददरेवा में गोगादेव के उत्तराधिकारी थे.
पहुँच
रेल मार्ग:- जयपुर से लगभग 250 किमी दूर स्थित सादलपुर तक ट्रेन द्वारा जाया जा सकता है।सड़क मार्ग:- जयपुर देश के सभी राष्ट्रीय मार्ग से जुड़ा हुआ है। जयपुर से सादलपुर और सादलपुर से 15 किमी दूर स्थित गोगाजी के जन्मस्थान तक बस या टैक्सी से पहुँचा जा सकता है।References
- ↑ DasharathaSharma: Early Chauhan Dynastied (800-1316 AD), pp.365-366
- ↑ रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, १९९८, पृ.41
- ↑ Burdak Gotra Ka Itihas
- ↑ Rao Chhotu Singh Village - Dadia, Tahsil - Kishangargh, District - Ajmer Rajasthan, Phone: 01463-230349, Mob: 09001329120
- ↑ डॉ मोहन लाल गुप्ता:राजस्थान ज्ञान कोष, वर्ष २००८, राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर, पृ. ४७३
- ↑ देवीसिंह मंडावा:सम्राट पृथ्वीराज चौहान,पृ. 134
- ↑ डॉ मोहन लाल गुप्ता:राजस्थान ज्ञान कोष, वर्ष २००८, राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर, पृ. ४७३
- ↑ देवीसिंह मंडावा:सम्राट पृथ्वीराज चौहान,पृ. 134
- ↑ डॉ मोहन लाल गुप्ता:राजस्थान ज्ञान कोष, वर्ष २००८, राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर, पृ. ४७३
- ↑ देवीसिंह मंडावा:सम्राट पृथ्वीराज चौहान,पृ. 134
- ↑ डॉ मोहन लाल गुप्ता:राजस्थान ज्ञान कोष, वर्ष २००८, राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर, पृ. ४७३
- ↑ रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.75-76
वीर गोगाजी
वीर गोगाजी
चौहान वीर गोगाजी का जन्म विक्रम संवत 1003 में चुरू जिले के ददरेवा गाँव में हुआ था. [5]देवीसिंह मंडावा लिखते हैं कि चौहाण की साम्भर शाखा में एक घंघ ने चुरू से चार कोस पूर्व में घांघू बसाकर अपना राज्य स्थापित किया. उसके पांच पुत्र और एक पुत्री थी. उसने अपने बड़े पुत्र हर्ष को न बनाकर दूसरी रानी के बड़े पुत्र कन्हो को उत्तराधिकारी बनाया. हर्ष और जीण ने सीकर के दक्षिण में पहाड़ों पर तपस्या की. जीण बड़ी प्रसिद्ध हुई और देवत्व प्राप्त किया. कन्हो की तीन पीढ़ी बाद जीवराज (जेवर) राणा हुए. उनकी पत्नी बाछल से गोगादेव पैदा हुए. [6]
गोगादेव का विवाह कोलुमण्ड की राजकुमारी केलमदे के साथ होना तय हुआ था किन्तु विवाह होने से पहले ही केलमदे को एक सांप ने डस लिया. इससे गोगाजी कुपित हो गए और मन्त्र पढ़ने लगे. मन्त्र की शक्ति से नाग तेल की कढाई में आकर मरने लगे. तब नागों के राजा ने आकर गोगाजी से माफ़ी मांगी तथा केलमदे का जहर चूस लिया. इस पर गोगाजी शांत हो गए. [7]
जब गजनी ने सोमनाथ मंदिर पर हमला किया था तब पश्चिमी राजस्थान में गोगा ने ही गजनी का रास्ता रोका था. घमासान युद्ध हुआ. गोगा ने अपने सभी पुत्रों, भतीजों, भांजों व अनेक रिश्तेदारों सहित जन्म भूमि और धर्म की रक्षा के लिए बलिदान दे दिया. [8]
जिस स्थान पर उनका शारीर गिरा था उसे गोगामेडी कहते हैं. यह स्थान हनुमानगढ़ जिले की नोहर तहसील में है. इसके पास में ही गोरखटीला है तथा नाथ संप्रदाय का विशाल मंदिर स्थित है.[9]
गोगा के कोई पुत्र जीवित न होने से उसके भाई बैरसी या उसके पुत्र उदयराज ददरेवा के राणा बने. [10]
आज भी सर्पदंश से मुक्ति के लिए गोगाजी की पूजा की जाती है. गोगाजी के प्रतीक के रूप में पत्थर या लकडी पर सर्प मूर्ती उत्कीर्ण की जाती है. लोक धारणा है कि सर्प दंश से प्रभावित व्यक्ति को यदि गोगाजी की मेडी तक लाया जाये तो वह व्यक्ति सर्प विष से मुक्त हो जाता है. भादवा माह के शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष की नवमियों को गोगाजी की स्मृति में मेला लगता है. उत्तर प्रदेश में इन्हें जहर पीर तथा मुसलमान इन्हें गोगा पीर कहते हैं. [11]
रणकपुर शिलालेख में गोगाजी को एक लोकप्रिय वीर माना है. यह शिलालेख वि. 1496 (1439 ई.) का है.[12]
References
- ↑ DasharathaSharma: Early Chauhan Dynastied (800-1316 AD), pp.365-366
- ↑ रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, १९९८, पृ.41
- ↑ Burdak Gotra Ka Itihas
- ↑ Rao Chhotu Singh Village - Dadia, Tahsil - Kishangargh, District - Ajmer Rajasthan, Phone: 01463-230349, Mob: 09001329120
- ↑ डॉ मोहन लाल गुप्ता:राजस्थान ज्ञान कोष, वर्ष २००८, राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर, पृ. ४७३
- ↑ देवीसिंह मंडावा:सम्राट पृथ्वीराज चौहान,पृ. 134
- ↑ डॉ मोहन लाल गुप्ता:राजस्थान ज्ञान कोष, वर्ष २००८, राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर, पृ. ४७३
- ↑ देवीसिंह मंडावा:सम्राट पृथ्वीराज चौहान,पृ. 134
- ↑ डॉ मोहन लाल गुप्ता:राजस्थान ज्ञान कोष, वर्ष २००८, राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर, पृ. ४७३
- ↑ देवीसिंह मंडावा:सम्राट पृथ्वीराज चौहान,पृ. 134
- ↑ डॉ मोहन लाल गुप्ता:राजस्थान ज्ञान कोष, वर्ष २००८, राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर, पृ. ४७३
- ↑ रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.75-76
शुक्रवार, 10 अगस्त 2012
ददरेवा के कायमखानी
ददरेवा के कायमखानी
राजस्थान के इतिहासकार मुंहता नेणसी ने अपनी ख्यात में लिखा है कि हिसार के फौजदार सैयद नासिर ने ददरेवा को लूटा. वहां से दो बालक एक चौहान दूसरा जाट ले गए. उन्हें हांसी के शेख के पास रख दिया. जब सैयद मर गया तो वे बहलोल लोदी के हुजूर में भेजे गए. चौहान का नाम कायमखां तथा जाट का नाम जैनू रखा. जैनू के वंशज (जैनदोत) झुंझुनु फतेहपुर में हैं. कायमखां हिसार का फौजदार बना. चौधरी जूझे से मिलकर झुंझुनूं क़स्बा बसाया. कायमखां ददरेवा के मोटेराव चौहान का पुत्र था. कायमखां के वंशज कायमखानी कहलाते हैं. [1][2]ऐतिहासिक तथ्यों से इस बात की पुष्टी होती है. महाकवि जान, रासो के रचयिता, कायमखां के मोटेराव चौहान का पुत्र होना, ददरेवा का निवासी होना आदि तथ्यों का विस्तार से उल्लेख करते हैं. यह विवेचना आवश्यक है कि मोटेराव चौहान का कौनसा समय था तथा कायम खां किस समय मुसलमान बना. ददरेवा के चौहान साम्भर के चौहानों की एक शाखा थे. लम्बी अवधी से इनका ददरेवा पर अधिकार था और इनकी उपाधी राणा थी . चौहानों में राणा की उपाधी दो शाखाएं प्रयुक्त करती थी. पहली मोहिल और दूसरी चाहिल. ददरेवा के चौहान संभवत: चाहिल शाखा के थे. गोगाजी जो करमचंद के पूर्वज थे, के मंदिर के पुजारी आज भी चाहिल हैं. मोटे राव चौहान गोगाजी का वंशज था. दशरथ शर्मा गोगाजी का समय 11वीं शदी मानते हैं. उनके अनुसार वे महमूद गजनवी से युद्ध करते हुए सना 1024 में बलिदान हुए. रणकपुर शिलालेख में भी गोगाजी को एक लोकप्रिय वीर माना है. यह शिलालेख वि. 1496 (1439 ई.) का है.[3]
यह प्रसिद्ध है कि गोगाजी से 16 पीढ़ी बाद कर्मचंद हुआ. इसी प्रकार जैतसिंह से उसे सातवीं पीढ़ी में होना माना जाता है. बांकीदास ने गोगाजी को जेवर का पुत्र होना लिखा है. गोगाजी के बाद बैरसी , उदयराज , जसकरण , केसोराई, विजयराज, मदनसी, पृथ्वीराज, लालचंद, अजयचंद, गोपाल, जैतसी, ददरेवा की गद्दी पर बैठे. जैतसी का शिलालेख प्राप्त हुआ है जो वि.स. 1270 (1213 ई.) का है. इसे वस्तुत: 1273 वि.स. का होना बताया है. जैतसी के बाद पुनपाल, रूप, रावन, तिहुंपाल, मोटेराव, यह वंशक्रम रासोकार ने माना है. जैतसी के शिलालेख से एक निश्चित तिथि ज्ञात होती है. जैतसी गोपाल का पुत्र था जिसने ददरेवा में एक कुआ बनाया. गोगाजी महमूद गजनवी से 1024 में लड़ते हुए मारे गए थे. गोगाजी से जैतसी तक का समय 9 राणाओं का प्राय: 192 वर्ष आता है जो औसत 20 वर्ष से कुछ अधिक है. जैतसी के आगे के राणाओं का इसी औसत से मोटेराव चौहान का समय प्राय: 1315 ई. होता है जो फिरोज तुग़लक के काल के नजदीक है. इससे स्पस्ट होता है कि कायम खां फीरोज तुग़लक (1309-1388) के समय में मुसलमान बना. [4]
तारीखी फीरोजशाही से ज्ञात होता है कि बंगाल से लौटने के बाद बंगाल की लड़ाई के दूसरे साल हिसार फीरोजा की स्थापना की. यह 1354 में माना जा सकता है. हिसार में सुल्तान ने एक दुर्ग बनाया और अपने नाम पर इस नगर का आम हिसार फीरोजा रखा. इसके पूर्व हिसार के आसपास का क्षेत्र हांसी के शिंक (डिविजन ) में था. इस शिंक का नाम हिसार फीरोजा कर दिया और हांसी, अग्रोहा, फतेहाबाद, सरसुती, सालारुह, और खिज्राबाद के जिले इसमें सामिल कर लिये. इसके पास ही दक्षिण पश्चिम में शेखावाटी का भूभाग था. कायम खां यद्यपि धर्म परिवर्तन कर मुसलमन हो गया था पर उसके हिन्दू संस्कार प्रबल थे. उसका संपर्क भी अपने जन्म स्थान के आसपास की शासक जातियों से बना रहा था. कायम खां के सात स्त्रियाँ थी जो सब हिन्दू थी. [5]
कायमखां अपने जीवन के अंतिम दिनों में हिसार फीरोजा का हाकिम रहा था. यह क्षेत्र दूर-दूर तक फैला था तथा अपना जन्म स्थान ददरेवा भी निकट था जहाँ अब भी चौहान राज कर रहे थे. कायमखां का शेखावाटी से निकट संपर्क था यह बात खंडेले के शासकों के वर्ग में उसकी शादी से जाना जा सकता है. इसी संपर्क के करण बाद में उसके पुत्र हिसार से विस्थापित होकर इधर चले आये. शेखावाटी प्रकाश के अनुसार कायम खां के 5 पुत्र थे - महमदखां, ताजखां, क़ुतुबखां, अबूखां, और इख्तियारखां. 'फतेहपुर परिचय' में उसके 6 लड़के होने की बात कही है. उपरोक्त पांच के अतिरिक्त मोहनखां का नाम जोड़ा गया है. चौथा पुत्र क़ुतुबखां बारुवे में जाकर बस गया और आस-पास के स्थानों पर उसने अधिकार कर लिया. बारुआ झुंझुनूं जिले का स्थान है जो नवलगढ़ से 11 किमी दूर दक्षिण में है. [6]
गोगाजी की जन्मस्थली
गोगाजी की जन्मस्थली
गोगादेव के जन्मस्थान ददरेवा, जो राजस्थान के चुरू जिले की राजगढ़ तहसील में स्थित है। यहाँ पर सभी धर्म और सम्प्रदाय के लोग मत्था टेकने के लिए दूर-दूर से आते हैं । नाथ परम्परा के साधुओं के लिए यह स्थान बहुत महत्व रखता है। दूसरी ओर कायमखानी मुस्लिम समाज के लोग उनको जाहर पीर के नाम से पुकारते हैं तथा उक्त स्थान पर मत्था टेकने और मन्नत माँगने आते हैं। इस तरह यह स्थान हिंदू और मुस्लिम एकता का प्रतीक है।मध्यकालीन महापुरुष गोगाजी हिंदू, मुस्लिम, सिख संप्रदायों की श्रद्घा अर्जित कर एक धर्मनिरपेक्ष लोकदेवता के नाम से पीर के रूप में प्रसिद्ध हुए। गोगाजी का जन्म राजस्थान के ददरेवा (चुरू) चौहान वंश के शासक जैबर (जेवरसिंह) की पत्नी बाछल के गर्भ से गुरु गोरखनाथ के वरदान से भादो सुदी नवमी को हुआ था। चौहान वंश में राजा पृथ्वीराज चौहान के बाद गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा थे। गोगाजी का राज्य सतलुज सें हांसी (हरियाणा) तक था।लोकमान्यता व लोककथाओं के अनुसार गोगाजी को साँपों के देवता के रूप में भी पूजा जाता है। लोग उन्हें गोगाजी चौहान, गुग्गा, जाहिर वीर व जाहर पीर के नामों से पुकारते हैं। यह गुरु गोरक्षनाथ के प्रमुख शिष्यों में से एक थे। राजस्थान के छह सिद्धों में गोगाजी को समय की दृष्टि से प्रथम माना गया है।जयपुर से लगभग 250 किमी दूर स्थित सादलपुर के पास ददरेवा में गोगादेवजी का जन्म स्थान है। गोगादेव की जन्मभूमि पर आज भी उनके घोड़े का अस्तबल है और सैकड़ों वर्ष बीत गए, लेकिन उनके घोड़े की रकाब अभी भी वहीं पर विद्यमान है। उक्त जन्म स्थान पर गुरु गोरक्षनाथ का आश्रम भी है और वहीं है गोगादेव की घोड़े पर सवार मूर्ति। भक्तजन इस स्थान पर कीर्तन करते हुए आते हैं और जन्म स्थान पर बने मंदिर पर मत्था टेककर मन्नत माँगते हैं।जातरु ददरेवा आकर न केवल धोक आदि लगाते हैं बल्कि वहां अखाड़े (ग्रुप) में बैठकर गुरु गोरक्षनाथ व उनके शिष्य जाहरवीर गोगाजी की जीवनी के किस्से अपनी-अपनी भाषा में गाकर सुनाते हैं। प्रसंगानुसार जीवनी सुनाते समय वाद्ययंत्रों में डैरूं व कांसी का कचौला विशेष रूप से बजाया जाता है। इस दौरान अखाड़े के जातरुओं में से एक जातरू अपने सिर व शरीर पर पूरे जोर से लोहे की सांकले मारता है। मान्यता है कि गोगाजी की संकलाई आने पर ऐसा किया जाता है।
हवाई अड्डा लगभग 250 किमी पर स्थित है।
रेल मार्ग:- जयपुर से लगभग 250 किमी दूर स्थित सादलपुर तक ट्रेन द्वारा जाया जा सकता है।सड़क मार्ग:- जयपुर देश के सभी राष्ट्रीय मार्ग से जुड़ा हुआ है। जयपुर से सादलपुर और सादलपुर से 15 किमी दूर स्थित गोगाजी के जन्मस्थान तक बस या टैक्सी से पहुँचा जा सकता है।
गोगाजी महाराज एक परिचय
राजस्थान की लोक गाथाओं में असंख्य देवी देवताओं की कथा सुनने में आती
है | इन कथाओं में एक कथा श्री जाहर वीर गोगा जी चौहान की भी है | |
वर्तमानकाल में जिसे ददरेवा कहा जाता है यह जिला चुरू (राज.) में आता है | इसका पुराना ऐतिहासिक महत्व भी था क्यों की यह चौहान शासको की राजधानी थी |
ददरेवा के राजा जीव राज जी चौहान की पत्नी ने भगवान की भक्ती की जिसके फलस्वरुप वहा गुरु गोरखा नाथ जी महाराज पधारे और उन्होंने बछल देवी को संतानोपत्ति का आशीर्वाद दिया |
कुछ समय उपरांत उनके घर एक सुन्दर राजकुमार का जन्म हुआ | जिसका नाम भी गुरु गोरखनाथ जी के नाम के पहले अक्षर से ही रखा गया |
यानी गुरु का गु और गोरख का गो यानी की गुगो जिसे बाद में गोगा जी कहा जाने लगा | गोगा जी ने गूरू गोरख नाथ जी से तंत्र की शिक्षा भी प्राप्त की थी |
यहाँ राजस्थान में गोगा जी को सर्पो के देवता के रूप में पूजा जाता है |
कुछ कथाकार इनको पाबूजी महाराज के समकालीन मानते है तो कुछ इतिहास कार गोगाजी व पाबूजी के समयाकाल में दो सो से दाई सो वर्षो का अंतराल मानते है |
कथाओं के मुताबिक पाबूजी के बड़े भाई बुढाजी की पुत्री केलम इनकी पत्नी थी |
वर्तमानकाल में जिसे ददरेवा कहा जाता है यह जिला चुरू (राज.) में आता है | इसका पुराना ऐतिहासिक महत्व भी था क्यों की यह चौहान शासको की राजधानी थी |
ददरेवा के राजा जीव राज जी चौहान की पत्नी ने भगवान की भक्ती की जिसके फलस्वरुप वहा गुरु गोरखा नाथ जी महाराज पधारे और उन्होंने बछल देवी को संतानोपत्ति का आशीर्वाद दिया |
कुछ समय उपरांत उनके घर एक सुन्दर राजकुमार का जन्म हुआ | जिसका नाम भी गुरु गोरखनाथ जी के नाम के पहले अक्षर से ही रखा गया |
यानी गुरु का गु और गोरख का गो यानी की गुगो जिसे बाद में गोगा जी कहा जाने लगा | गोगा जी ने गूरू गोरख नाथ जी से तंत्र की शिक्षा भी प्राप्त की थी |
यहाँ राजस्थान में गोगा जी को सर्पो के देवता के रूप में पूजा जाता है |
कुछ कथाकार इनको पाबूजी महाराज के समकालीन मानते है तो कुछ इतिहास कार गोगाजी व पाबूजी के समयाकाल में दो सो से दाई सो वर्षो का अंतराल मानते है |
कथाओं के मुताबिक पाबूजी के बड़े भाई बुढाजी की पुत्री केलम इनकी पत्नी थी |
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